
भोपाल/रवि खरे/बिच्छू डॉट कॉम। मध्यप्रदेश में बड़ी संख्या में रहने वाले आदिवासियों की आजीविका का साधन जंगल और जंगल से प्राप्त होने वाले पत्ते, फल, फूल, गोंद व लकड़ी इत्यादि ही है। हालांकि यह भी सही है कि आदिवासी इन पर अपना एकाधिकार भी मानते हैं। प्रदेश के जंगलों से अब गुजरात की औषधियों का व्यापार करने वाली फार्माजा हर्बल कंपनी सलई के पेड़ों से गोंद निकालने का काम करेगी।
यह काम कंपनी अपने सीएसआर फंड के तहत करवा रही है। कंपनी सूत्रों के मुताबिक आदिवासी यदि कंपनी को अपना उत्पाद बेचते हैं, तो कंपनी इसके लिए भी उनकी मदद करेगी। हाल ही में इस कंपनी ने श्योपुर जिले की प्लांटेशन वन समितियों के माध्यम से ओछापुरा क्षेत्र में 25 हेक्टेयर में सलई के पौधों का रोपण शुरू किया है। यह पौधे आदिवासी ही जंगल से लाकर रोप रहे हैं। खास बात यह है कि कंपनी हर साल दस लाख रुपए यह पौधे लगाने और उनकी सुरक्षा पर खर्च करेगी। यही नहीं कंपनी द्वारा दस लाख रुपए की पहली किस्त दी भी जा चुकी है। उल्लेखनीय है कि सलई के पेड़ की गोंद सुरक्षित होती है इसका उपयोग दवा के साथ-साथ परफ्यूम आदि बनाने में किया जाता है। ऐसे में औषधियों का व्यापार करने वाली कंपनी का आदिवासियों से जुड़ने से आदिवासियों का फायदा होगा।
जरूरत पड़ने पर पेड़ों को गिरवी रखकर लेते हैं कर्ज: आमतौर पर आदिवासियों द्वारा ही जंगल से सलई के पेड़ से गोंद निकालने का काम किया जाता है। पारंपरिक रूप से इन पेड़ों पर इन्हीं का एकाधिकार माना जाता है। खास बात है कि किसी पेड़ पर मालिकाना हक आदिवासियों का मुखिया सबकी सहमति से तय करता है। जब पेड़ बड़ा हो जाता है तो एक माह में करीब 50 किलो तक गोंद इसमें आसानी से निकल जाती है। बाजार में एक किलो गोंद की कीमत करीब चार सौ रुपए से ऊपर है। ऐसे में जिस आदिवासी के पास कोई पेड़ रहता है वह जरूरत पड़ने पर उसे गिरवी रख देता है। जिससे उसे अठारह से बीस हजार रुपए का कर्ज आसानी से मिल जाता है। जब तक कर्ज चुकता नहीं हो जाता तब तक पेड़ों से गोंद निकालने और बेचने का काम कर्जदाता द्वारा किया जाता है। वहीं वन विभाग के अधिकारियों का मानना मानना है कि आदिवासियों की पेड़ों को लेकर एक सामाजिक व्यवस्था है। क्योंकि पेड़ काटे नहीं जाते हैं और ना ही जंगल को कोई नुकसान पहुंचाया जाता है। इसलिए इसमें कोई आपत्ति नहीं रहती है।
दहेज में देने की है प्रथा
कृषि वैज्ञानिकों की मानें तो छह से आठ महीने में सलई का पेड़ आकार लेने लगता है। गोंद निकालने के लिए पेड़ के तने को चारों ओर जमीन से दी से तीन फीट ऊपर कुल्हाड़ी से छीन देते हैं। हफ्ते दस दिन के बाद इसमें गोंद निकलना शुरू हो जाती है। आदिवासियों को इन पेड़ों से गोंद निकलने से रोजगार मिलता है। इसलिए वे इन्हें तस्करों से भी बचाते हैं। यही नहीं बेटी की शादी में लड़के वालों को उपहार के रूप में भी पेड़ दिए जाते हैं। जिससे उनकी बेटी आर्थिक रूप से परेशान ना रहें।
सीएसआर फंड से सुधरेगी आदिवासियों की आर्थिक स्थिति
उल्लेखनीय है कि फार्माजा हर्बल कंपनी द्वारा 25 हेक्टेयर क्षेत्र में सलई के पेड़ों का रोपण किया जा है। जब यह पेड़ बड़े हो जाएंगे तो इन्हें आदिवासियों को ही सौंप दिया जाएगा। इसके बाद आदिवासी इससे निकलने वाली गोंद को बेच भी सकेंगे। दरअसल गुजरात की कंपनी ने सलई के पेड़ लगाने का यह काम अपनी सामाजिक जिम्मेदारी कार्यक्रम सीएसआर प्रोग्राम के तहत आदिवासियों की आर्थिक मदद करने के हिसाब से शुरू किया है। कंपनी ने ऐसा कोई अनुबंध नहीं किया है कि पेड़ों से निकलने वाली गोंद को वह ले जाएगी, बल्कि पेड़ तैयार होने के बाद इन्हें वन समितियों के माध्यम से जंगल में रहने वाले आदिवासी परिवारों को ही सुपुर्द कर दिया जाएगा। आदिवासी परिवार ही पेड़ों से गोंद को निकालेंगे और बाजार में यह बेच सकेंगे। इससे आदिवासियों की आर्थिक स्थिति में सुधार आएगा।