
भोपाल/प्रणव बजाज/बिच्छू डॉट कॉम। दमोह उपचुनाव के परिणाम के बाद बनी स्थिति के बाद भाजपा के भूले बिसरे गीतों में शुमार हो चुके बड़े नेताओं को जयंत मलैया के बहाने संगठन व संघ को चुनौती देने का मौका हाथ लग गया है। यही नेता अब मलैया के पक्ष में लामबंद होकर संगठन व संघ को चुनौती दे रहे हैं। यह वे नेता हैं, जो एक समय प्रदेश की सत्ता में अहम मुकाम रखते थे , लेकिन धीरे-धीरे उन्हें इनके क्षेत्र के ही मतदाताओं ने ही उन्हें नकारना शुरू कर दिया, जिसके बाद वे नेपथ्य में चले गए थे। इसके बाद इन नेताओं की सक्रियता भी नजर आना बंद हो गई। यह बात अलग है कि प्रदेश में पार्टी की सत्ता होने की वजह से उन्हें अप्रत्यक्ष रुप से महत्व मिलता रहा है। इसके बाद भी यह नेता अपनी दूसरी पीढ़ी के लिए जगह छोड़ने को तैयार नही दिखते हैं। इनमें हिम्मत कोठारी, ध्यानेन्द्र सिंह , माया सिंह, कुसुम मेहदेले और रुस्तम सिंह जैसे नेता है जो अब पूरी तरह से उम्र के चौथे पड़ाव में पहुंच चुके हैं। भाजपा के गढ़ माने जाने वाले दमोह में पहली बार ऐसा हुआ है कि प्रदेश की सत्ता में रहते पूरे प्रयासों के बाद भाजपा प्रत्याशी राहुल लोधी को बड़ी हार का सामना करना पड़ा है। आम चुनावों में भी भाजपा इतने अधिक मतों के अंतर से कभी नही हारी है। इसके चलते संगठन ने जयंत मलैया के पुत्र सहित पांच मंडल अध्यक्षों को बाहर का रास्ता दिखाकर मलैया को नोटिस देकर जबाव तलब किया है। संघ और संगठन को चुनौती देने वाले इन नेताओं की अगर बात करें तो हिम्मत कोठारी छह बार विधायक और कई बार मंत्री और उसके समकक्ष पदों पर रहने के बाद भी जिले से बाहर कभी भी प्रभावशाली नहीं बन सके। यही नहीं उनके चुनाव हारने के बाद जब पार्टी ने दूसरी पीढ़ी के नेता को टिकट दिया तो वे नाराज हो गए। इसके बाद भी पार्टी के सत्ता में होने का फायदा उन्हें मिला और उन्हें वित्त आयोग जैसे अहम संस्था में नामित कर दिया गया। इसके बाद भी उनकी नाराजगी दूर नही हुई। वे अब मलैया के बहाने अपनी नाराजगी दिखा रहे हैं। इसी तरह से पार्टी की वरिष्ठ महिला नेत्री कुसुम मेहदेले का भी यही हाल है। वे पार्टी की लहर में जीतती रही हैं। उन्हें मंत्री मंडल में भी काम करने का कई बार मौका मिला है। बीता चुनाव वे हार चुकी हैं। वे भी इन दिनों संगठन व सरकार से नाराज चल रही हैं। उनका प्रभाव कभी भी अपने इलाके से बाहर नहीं रहा है। यही नहीं वे कई बार मंत्री रहने के बाद अपने समाज तक पर पकड़ बनाने में नाकाम रही हैं। उनकी छवि एक तुनकमिजाज नेता के रुप में है। उन्हें पार्टी में उमा भारती विरोधी नेता के रुप में जाना जाता है। राहुल लोधी को उमा का करीबी माना जाता है, जिसकी वजह से मेहदेले द्वारा मलैया के खिलाफ की गई कार्रवाई का विरोध करना स्वभाविक माना जा रहा है। इसी तरह से ध्यानेन्द्र सिंह सिर्फ एक ही चुनाव जीते हैं। उनका भी खास जनाधार नहीं माना जाता है। उनकी उपलब्धि यह है कि वे राजमाता के भाई हैं। इसके चलते ही संगठन द्वारा कई दशकों तक उनका और उनके परिवार का पूरा ख्याल रखा गया। यही वजह है कि पहले उनकी पत्नी माया सिंह को राज्यसभा भेजा गया और फिर उन्हें पार्टी का टिकट देकर विधायक बनने के बाद मंत्री भी बनाया गया। इसके अलावा उन्हें संगठन के कई अहम पदों पर भी लंबे समय तक काम करने का अवसर दिया जाता रहा। इसके बाद भी वे और उनका परिवार ग्वालियर शहर में पार्टी के लिए कभी भी चुनाावी फायदे वाले नेता साबित नही हुए।
इसी तरह से पार्टी द्वारा ब्यूरोक्रेट से राजनेता बनाए गए रुस्तम सिंह भी पार्टी के लिए खुद को साबित करने में अब तक असफल रह चुके हैं। उमाभारती द्वारा उन्हें पहली बार में ही टिकट दिया गया था। उस समय लहर में विधायक बनते ही पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार कर उन्हें मंत्री पद भी दे दिया गया था। इसके बाद वे एक बार फिर 2013 में विधायक बने , तो फिर उन्हें कई अहम विभागों का मंत्री बना दिया गया। उनकी कार्यशैली को लेकर आमजन व कार्यकर्ता तो ठीक उनकी ही समाज के लोग नाराज हो गए, जिसके चलते गुर्जर बाहुल्य सीट से एक बार फिर उन्हें हार का सामना करना पड़ा।
यही नहीं समाज की रुस्तम सिंह को लेकर नाराजगी भाजपा के लिए भी बीते आम चुनाव में भारी पड़ चुकी है। इस मामले में विरोध की शुरूआत करने वाले पूर्व मंत्री और वरिष्ठ विधायक अजय विश्नोई भी चुनाव हार चुके हैं। वे आईटी के छापे की वजह से बेहद चर्चा में रह चुके हैं। उनकी नाराजगी की वजह मानी जाती है उन्हें मंत्रीमंडल में शामिल न किया जाना। माना जा रहा है कि मलैया का उन्हें संगठन व संघ को घेरने के लिए बहाना मिल गया है , जिसका उनके द्वारा फायदा उठाया जा रहा है।