सालों से सरकार की मंशा पर पानी फेर रहीं अफसरों की मनमर्जियां

शिवराज सिंह चौहान

भोपाल/प्रणव बजाज/बिच्छू डॉट कॉम। मप्र ऐसा राज्य बन चुका है जहां पर पूरी तरह से अफसरशाही हावी है। आलम यह है कि अफसरों की मनमर्जियां सालों से सरकार की मंशा पर पानी फेर रहीं हैं। हालत यह है कि सरकार द्वारा जो फैसले कई साल पहले लिए गए हैं उन पर अमल आज तक भी नहीं हो पाया है। यही नहीं जनहितैषी योजनाओं की बात हो या फिर मूलभूत सुविधाओं की सब पर अफसर इतने भारी हैं कि सरकार उनके खिलाफ कोई कार्रवाई करने से पहले कई बार सोचती है। इसकी वजह से उनके हौसले बुलंद होते जा रहे हैं।
इसी तरह का कुछ मामला है प्रदेश में एक दर्जन समान प्रकृति के सरकारी विभागों को बंद कर उन्हें मर्ज करने का। अगर सरकार की इस मामले में मंशा पूरी हो जाती तो स्थापना मद में खर्च होने वाली तीस फीसदी राशि की बचत होती। इसकी वजह से सरकार को आर्थिक संकट से न केवल मुक्ति मिलती, बल्कि विकास कामों के लिए भी पैसे की परेशानी से भी नहीं जूझना पड़ता। अफसर जानते हैं कि अगर विभागों को खत्म करने की सरकार की मंशा पूरी होती है तो उनकी आलीशान सुख-सुविधाओं पर भी कैंची चल जाएगी। दरअसल अफसरों को आमजन की सुविधाओं की जगह अपनी सुख सुविधाओं का पूरा ख्याल रहता है।
अगर अफसर चाह लें तो कई तरह की समस्याएं तो पैदा ही नहीं हो सकेंगी और उनसे निपटने में होने वाले खर्च से भी सरकार बच सकेगी। इसके लिए सरकार भी कम दोषी नहीं हैं, क्योंकि सरकार में उसकी मंशा की राह का रोड़ा बनने वाले अफसरों पर कार्रवाई की इच्छाशक्ति की कमी होना। हाल ही में राजधानी में सरकार की जमकर खराब सड़कों को लेकर बदनामी होने लगी जब सरकार ने सीपीए को बंद करने की घोषणा की। इसमें भी खास बात यह है कि राजधानी में उसके पास गिनीचुनी ही सड़कें है, जिनकी हालत अन्य संस्थाओं के रखरखाव वाली सड़कों से स्थिति बेहद अच्छी है, जबकि सबसे दयनीय हालत नगर निगम और भोपाल विकास प्राधिकरण की सड़कों की है। इसके बाद भी अफसरों ने ऐसा दांव चला कि सर्वाधिक दोषी संस्थान तो ठीक उनके किसी भी अफसर पर कोई आंच नहीं आयी, बल्कि सीपीए को बंद करने की घोषणा कर दी गई।  प्रदेश सरकार ने करीब तीन साल पहले एक ही प्रकृति के विभागों को एक दूसरे में मर्ज करने का फैसला किया था। इसके लिए विभागों से प्रस्ताव मांगा कर उनकी समाप्ती को लेकर प्रक्रिया शुरू कर दी थी, लेकिन इन प्रस्तावों को अफसरों ने सरकार तक ही नहीं जाने दिया। दरअसल प्रदेश के अफसर नहीं चाहते कि सरकार की यह मंशा पूरी हो। इसकी वजह है अगर कई विभाग बंद हुए तो न केवल उनका रसूख कम हो जाएगा, बल्कि सरकारी खर्च पर मिलने वाली लग्जरी सुविधाओं में कमी आ जाएगी। यही वजह है कि विभागों को मर्ज करने की प्रक्रिया में वे कोई रुचि नहीं ले रहे हैं।
आयोग की सिफारिशों पर अमल नहीं
2005 में कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री रहे वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में गठित द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने अनुपयोगी और एक ही प्रकृति के विभागों को एक दूसरे में मर्ज करने की अनुशंसा की थी। आयोग का माना था कि एक समान काम वाले विभागों के गठन में सिर्फ अफसरों का भला होता है। इससे प्रशासनिक खर्च बढ़ता है और वित्तीय प्रणालियों का सुदृढ़ीकरण पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। आयोग ने यह भी माना था कि कई बार विभाग अफसरों को काम देने के लिए गठित कर दिए जाते हैं, इसके अलावा आयोग ने नौकरशाही के कामकाज में सुधार के लिए भी कई महत्वपूर्ण सिफारिश की थीं , जिसमें उनकी 14 वर्षों और उसके बाद 20 सालों की सेवा के बाद फिर समीक्षा कर यह पता करने की भी सिफारिश की थी कि इससे यह पता करें कि वे आगे सेवा में रहने के योग्य है अथवा नहीं।  आयोग की इस अनुशंसाओं को एक दशक बाद राज्यों को भेजा गया है।
मप्र में 2018 में शुरू की गई कवायद
आयोग की अनुशंसाएं मिलने के बाद मप्र में 2018 में सामान्य प्रशासन विभाग ने सभी विभागों को जारी निर्देश में कहा था कि वे विभागों को मर्ज करने के संबंध में अपने सुझाव दें। इसके साथ ही उच्चस्तरीय समीक्षा में ऐसे दो दर्जन विभागों का चयन किया गया था, जिनके काम की प्रकृत्ति एक दूसरे के समान हैं। तब इन्हें मर्ज करने पर  सहमति भी बनी थी पर इसके बाद विधानसभा चुनाव क्या आए उसके बाद से इस मामले को अफसरशाही ने ठंडे बस्ते में ही डाल दिया। उस समय जिन विभागों में को मर्ज करने की खबरें आयी थीें उनमें जन शिकायत और सीएम हेल्पलाइन, स्वास्थ्य चिकित्सा शिक्षा और आयुष इसमें गैस राहत विभाग को भी जोड़ने  का फैसला किया गया था। इसी तरह से ऊर्जा विभाग के साथ नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा, कृषि के साथ उद्यानिकी, मत्स्य पालन के साथ पशुपालन डेयरी। तकनीकी शिक्षा के साथ कौशल विकास विभाग को जोड़ा जाना था।
पूर्व में यह विभाग किए जा चुके हैं बंद
पूर्व में सरकार द्वारा प्रदेश के लघु सिंचाई, कार्मिक प्रशासनिक सुधार एवं प्रशिक्षण, बायोगैस नगरीय कल्याण, आयाकट, 20 सूत्री कार्यान्वयन, सार्वजनिक उपक्रम आवास एवं पर्यावरण, सूचना प्रौद्योगिकी जैव विविधता तथा जैव प्रौद्योगिकी विभागों को बंद किया जा चुका है।
मंत्री की जिद पड़ी भारी
प्रशासन द्वारा सरकार की मंशा पर 2014 में आदिम जाति कल्याण विभाग के शिक्षकों और स्कूलों को स्कूल शिक्षा विभाग में मर्ज करने के लिए प्रस्ताव तैयार किया गया था। प्रस्ताव को था। प्रस्ताव को कैबिनेट में लाने की पूरी तैयारी कर ली गई थी। इसका पता चलने पर उस समय तत्कालीन आदिम जाति कल्याण मंत्री ज्ञान सिंह इसके विरोध में खड़े हो गए। उनकी जिद के चलते इस प्रस्ताव को सीएम से मिलकर अंतिम क्षणों में रुकवा दिया गया। यही हाल चिकित्सा शिक्षा विभाग को स्वास्थ्य विभाग में मर्ज करने के मामले में हुआ। इन दोनों विभागों को मर्ज करने के लिए करीब छह माह की कवायद के बाद 2018 में दोनों विभागों को एक करने पर सहमति बनने के बाद अफसरों ने इससे संबंधित फाइल को ऐसा दबाया कि वो आज तक सामने नहीं आ सकी है। प्रदेश में फिर से शिव सरकार बनने के बाद से एक बार फिर दोनों विभागों को मर्ज करने पर चर्चा तो चली लेकिन अब तक कोई कदम नहीं उठाया गया।
तो 30 फीसदी खर्च में होगी कमी
प्रदेश में अभी बजट का करीब 70 फीसदी हिस्सा विभागों के स्थापना और कर्मचारियों के वेतन पर खर्च हो जाता है। अगर एक जैसे विभागों को एक दूसरे में मर्ज कर दिया जाता है तो अफसरों के अधिकारों व सुख सुविधाओंं में जरुर कमी आएगी, लेकिन इससे विभागों के बढ़ते खर्च में एकदम से भारी कमी आ जाएगी। इसकी वजह है स्थापना से लेकर अन्य तरह के खर्च समाप्त हो जाना।

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