
- अवधेश बजाज कहिन
यदि लिखने और बताने के लिहाज से व्यावसायिक आवश्यकता न हो तो इस दिशा में रत्ती-भर भी ध्यान देने की आवश्यकता महसूस नहीं होती है। क्योंकि देश में आम चुनाव की घोषणा अब अपने महत्व वाले खास तत्व को कब का तिरोहित कर चुकी है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के जो हालात हैं, वह इतने जटिल हैं कि यह कहने में भी डर लगने लगा है कि अब लोकतंत्र खतरे में है। क्योंकि देश आज तंत्र की सुरक्षा की बजाय उसकी परतंत्र व्यवस्थाओं के मकडज़ाल में अधिक बिधा हुआ नजर आ रहा है। आयकर से लेकर प्रवर्तन निदेशालय और केंद्रीय जांच ब्यूरो वस्तुत: वह स्वरूप ले चुके हैं, जो खालिस सच में पगी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सामने नंगी तलवार बनकर खड़े कर दिए गए हैं। विरोध करना तो दूर, लडऩे तक का माद्दा अब बेमानी कर दिया गया है। इसीलिए यह समूचे जनमानस की विवशता बन गई है कि तमाम जुमले और अहंकार से भरे उन्माद के कड़वे घूंट पीते हुए किसी को ‘पप्पू’ कहते हुए अपने-अपने मनोरंजन में लीन हो जाएं। सपने में भी इस बात पर विचार करने का साहस न कर सकें कि आखिर ये हो क्या रहा है? निश्चित ही पहले चुनाव लोकतंत्र का उत्सव हुआ करता था । लेकिन अब चुनाव से पहले इसके मद्देनजर जिस-जिस तरह के प्रपंच से लेकर षडय़ंत्र तक व्यवस्था का अंग बना दिए गए हैं, वह इसे उत्सव की बजाय शोकतंत्र के कर्मकांड में तब्दील कर देने के लिए पर्याप्त हैं । यह और यह सब कुछ इस तरीके से किया जा रहा है कि न चाहते हुए भी ‘भारत तो है आजाद, हम आजाद कब कहलाएंगे’ गीत जुबान सहित दिलो-दिमाग पर अधिकार जमाने लगता है। बात केवल यहीं तक सीमित नहीं है। सियासी दल-बदल किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का सहज पक्ष बन चुका है। किंतु इस मामले में अब जो होता दिख रहा है, वह किसी समय के आक्रांताओं पर लगने वाली उस तोहमत के सच से कुछ कम नहीं है कि डरा-धमकाकर लोगों का बलात पंथ परिवर्तन कराया गया था। बेशक इसे आरोपों से घिरे आक्रांता बीते कल की बात हो चुके हैं, लेकिन इस प्रवृत्ति का सोलह फीसदी सच वाला आज जो भयावह स्वरूप ले चुका है, उसकी सटीक व्याख्या वाले शब्द की पड़ताल सुकरात को जहर देने एवं ईसा मसीह को सूली पर लटकाने से लेकर जर्मनी में हिटलर के गैस चैंबर वाली अमानवीय घटनाओं के बीच से भी ढूंढे नहीं मिल सकते हैं । इस देश ने कभी आपातकाल का दंश भोगा था और आज यही देश उस आफतकाल का विषपान करने के लिए मजबूर है, जिसके लिए ‘इस रात की सुबह नहीं’ वाला डरावना वाक्य पूरी तरह खरा उतरता है। फिर भी निराशा में ही आशा का वास है। इसलिए यह उम्मीद बेमानी नहीं लगती कि एक बार फिर वह अवसर मिला है, जब हमारे और आपके हाथ की एक अंगुली किसी निर्जीव मशीन पर सही चयन की वह प्रक्रिया कर गुजरेगी, जो उस हाथ को अव्यवस्था के विरुद्ध किसी भिंची हुई मुट्ठी वाला स्वरुप प्रदान करने में पूरी तरह सक्षम है। यही समय है कि हम अपने भीतर के निर्जीव कर दिए गए देशवासी को फिर से जीवंत कर यह बता सकें कि ‘हम रुके थे, मरे नहीं हैं।’ तो आगे बढि़ए कि अपने भीतर के इंसान की सांसों और चेतना को जीवित रखने का मार्ग इसी तरफ से होकर गुजरता है।