
- भाजपा की लहर में भी करना पड़ा है मंत्री रहते हार का सामना
भोपाल/बिच्छू डॉट कॉम। निमाड़ इलाके में जहां भाजपा ने बीते चुनाव की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है, वहीं इसके बाद भी सूबे के एक प्रभावशाली मंत्री रहे श्रीमंत समर्थक राजर्वधन सिंह दत्तीगांव चुनाव हार गए। इस सीट की प्रकृति सामान्य और ओबीसी केन्द्रित मानी जाती है। कांटेदार टक्कर के लिए चर्चित बदनावर सीट इस बार लाड़ली बहना, मोदी की गारंटी एवं सनातन की लहर के बावजूद कांग्रेस के हाथ के साथ भंवर पर क्यों न्योछावर हुआ, यह हर किसी की जिज्ञासा का कारण बना हुआ है? बदनावर में 2013, 2018 और 2023 लगातार तीन ऐसे चुनाव हुए, जिसमें राजवर्धन सिंह दत्तीगांव और भंवरसिंह शेखावत का ही आमना-सामना होता रहा है। अंतर बस यह रहा कि चेहरे दोनों कायम रहे, पर उनके दल और चुनाव चिन्ह बदल गए थे। ऐसे में इस बार सादगी-मृदुभाषी अनुभव की टक्कर थी अहंकार-राजशाही कांग्रेसी मानसिकता से। इसमें सादगी और मृदभाषी व्यक्ति को जीत मिली है। बदनावर विधानसभा में 1957 से 2023 तक के 16 चुनावों में कांग्रेस ने 8 बार तो जनसंघ, जनता पार्टी और भाजपा ने भी 8 बार विजय हासिल की है। 2023 में भाजपा की प्रदेश में एकतरफा लहर और जीत के बावजूद बदनावर में कांग्रेस के भंवरसिंह शेखावत बाबूजी राम-राम की पंच लाइन के साथ भाजपा के राजवर्धन सिंह दत्तीगांव की कांग्रेसी मानसिकता पर भारी पड़ गए। अब इस सीट पर मिली हार का गहन विश्लेषण भाजपा संगठन और सरकार दोनों को करना चाहिए। भंवर सिंह शेखावत की जीत हर किसी को आश्चर्य में इसलिए डालती है कि वे भाजपा के कद्दावर नेता रहे हैं और सहकारिता पर उनकी मजबूत पकड़ है। अपेक्स बैंक में रहते उन्होंने कृषकों के लिए जीरो प्रतिशत ब्याज दर वाली योजना बनाई थी। कुशल संगठनकर्ता शेखावत ने 2023 के विधानसभा चुनाव में राजनीतिक हवा के खिलाफ जाकर न केवल पराक्रम दिखाया, बल्कि करीब तीन हजार वोटों से कांग्रेस को जीत भी दिलाई। जीत का यह अंतर छोटा है, लेकिन मतदान से 15 दिन पहले भाजपा के इस कद्दावर नेता ने कांग्रेस का दामन थामा, चुनाव लड़ा और जीता, यही बड़ी बात है और भाजपा संगठन के लिए चिंतन-मनन का बिन्दु भी यही है। दत्तीगांव के लिए सिंधिया ने तो शेखावत के लिए दिग्विजय ने चुनावी सभाएं लीं। वनांचल की इस सामान्य सीट पर राजपूत और पाटीदार समाज का दबदबा है। इसकी वजह है दोनों ही समाज के करीब-करीब 40-40 हजार वोट का होना। 20 हजार के लगभग मुस्लिम वोट भी इस सीट पर पार्टियों के गणित गड़बड़ाते है। ऐसे में आदिवासी वोट यहां पर अनेक बार जीत में निर्णायक भूमिका का निर्वाह करते हैं। यहां से राज्यवर्धन सिंह 4 बार चुनाव जीत चुके हैं।
कांग्रेसियों के मोह में फंसे राजवर्धन
श्रीमंत के कोटे से राजवर्धन सिंह को भाजपा ने बदनावर से प्रत्याशी बनाया था, लेकिन इस बात का आंकलन नहीं किया कि करीब दो दशक से उनका भाजपा के निष्ठावान कार्यकर्ता के रूप में मुकाबला कर रहे शेखावत को दरकिनार करने से पार्टी को कितना नुकसान हो सकता है। दत्तीगांव ने प्रदेश सरकार में उद्योग मंत्री रहते विधानसभा क्षेत्र में उद्योग लाने, टेक्सटाइल पार्क लगाने में सफलता प्राप्त की, लेकिन इसके लिए दर्जनों गांवों में जो जमीन अधिग्रहित की गई, उन किसानों को उचित मुआवजा या फिर उनके आक्रोश का समाधान करने में विफल रहे। कांग्रेस छोडक़र 2020 में भाजपा में आए दत्तीगांव 2023 में भी कांग्रेसी मानसिकता और कांग्रेस कार्यकर्ताओं और नेताओं के मोह से मुक्त नहीं हो पाए। स्थानीय कार्यक्रमों, आयोजनों में भी उन्होंने पुराने कांग्रेसियों को ही महत्व दिया है। उनके द्वारा भाजपा के कार्यकर्ताओं, पदाधिकारियों को जोड़ने में रुचि नहीं दिखाई गई। किसी भी तरह की ठेकेदारी या अन्य योजनाओं में आर्थिक लाभ का मामला भी जब आया तो उन्होंने पुराने कांग्रेसियों का ही हित संवर्धन किया। भाजपा जिलाध्यक्ष मनोज सोमानी जो स्वयं बदनावर से हैं और युवा मोर्चा के जिलाध्यक्ष जयसूर्या दोनों नेता पूरे चुनाव में दत्तीगांव से दूरी बनाए रहे। चुनाव के समय दत्तीगांव द्वारा पाटीदार समाज के व्यक्ति के खिलाफ थाने में प्रकरण दर्ज करवाने से राजपूत-पाटीदार समाज भी दत्तीगांव के खिलाफ एकजुट हो गया। उनके बारे में कहा जाता है कि वे विरोधियों के खिलाफ पुलिस का उपयोग करने में भी पीछे नहीं रहे हैं, साथ ही उनके द्वारा टेंडर, ठेकों में जबरिया अपनों को हिस्सेदारी दिलाई जाती थी।
पार्टियों को क्यों कहा अलविदा..?
राजवर्धन सिंह दत्तीगांव ने कांग्रेस का दामन इसलिए छोड़ा, क्योंकि उनके प्रमुख नेता सिंधिया भाजपा में आ गए थे, लेकिन शेखावत ने कांग्रेस का दामन क्यों थामा, इसकी थाह लेने का शायद भाजपा ने कभी प्रयास ही नहीं किया। 2018 में शेखावत को भाजपा के बागी राजेश अग्रवाल की वजह से हार का सामना करना पड़ा था। अग्रवाल 30,976 वोट ले गए थे।