उपभोक्तावादी शैली की नकल करना भारतीय समाज के लिए भी खतरनाक

  • अमिताभ श्रीवास्तव
उपभोक्तावादी शैली
  • प्रसंगवश
    अमेरिका के टेक्सस में सैंटा फे हाईस्कूल में गोलीबारी की वारदात रूह कँपा देने वाली है और सिर्फ अमेरिका ही नहीं, तेजी से अमेरिकी उपभोक्तावादी जीवन शैली की नकल करते जा रहे हमारे भारतीय समाज के लिए भी एक बहुत डरावनी चेतावनी है । हिंसा का आकर्षण, हथियारों के जरिये उत्तेजना हासिल करने की बढ़ती ललक कैसे समाज की सोच को बीमार बनाती जाती है, लोग मानसिक रोगी हो जाते हैं और पागलपन में वहशी की तरह व्यवहार करने लगते हैं, यह इस घटना ने एक बार फिर दिखाया है। सिर्फ 18 साल की उम्र के एक हमलावर ने स्कूल में अंधाधुंध गोलीबारी करके 19 बच्चों समेत 23 लोगों को मार डाला।  उसने अपनी दादी को भी नहीं बख़्शा।  पुलिस ने उसे भी मार गिराया। पुलिस का कहना है मौतों का आंकड़ा बढ़ सकता है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने हादसे पर अफसोस जताते हुए चार दिन के राष्ट्रीय शोक का ऐलान किया है। बाइडेन ने अमेरिका की गन लॉबी पर हमला बोला है । सवाल तो यह है कि गन लॉबी को पनपने , बढ़ावा देने का काम क्या सरकार की मंजूरी के बगैर हो रहा है? जब अमेरिका हथियारों का सौदागर बन कर पूरी दुनिया पर दादागिरी के जरिये धौंस जमाता है, हॉलीवुड का सिनेमा रैंबो जैसे नायक रचता है तो उसके अपने समाज में ऐसी वारदातें क्यों नहीं होंगी। अमेरिका की नकल में भारत में भी आजकल हिंसक और उग्र अभिव्यक्तियों के लिए आकर्षण तेजी से बढ़ रहा है। गांधी की बातों पर चर्चा की जगह गोडसे का महिमामंडन होने लगा है। अहिंसक विचारों , विनम्रता, शालीनता को कमजोरी और नामर्दी समझा जाने लगा है। एक समाज के तौर पर हमें समझना चाहिए कि बच्चों के हाथों में तीर-तलवार, त्रिशूल और पत्थर, बंदूकें थमाने वाली सियासत टेक्सस जैसी वारदातों को ही जन्म देगी। माँ-बाप को सचेत हो जाना चाहिए कि उनके बच्चे कहीं हिंसक वीडियो गेम, एनिमेशन फिल्मों, कॉमिक्स , खिलौनों वगैरह की संगत से अशांत, जिद्दी , उग्र , हिंसक तो नहीं हो रहे हैं। आजकल बच्चों के खिलौनों में बंदूकों और रेस लगाने वाली कारों पर ज्यादा जोर रहता है। तोहफे में किताबें देने का चलन खत्म हो गया है। अगर बच्चे की सालगिरह पर महंगा खिलौना नहीं दिया तो देने वाले की इज्जत गई समझो। समाज को मानसिक रोगी होने से बचाना है तो बच्चों पर और ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। हमारे न्यूज़ चैनल दिन रात हिंसक लहजे में चर्चाएं कराते हैं। शीर्षक देख लीजिए ऐसे कुछ कार्यक्रमों के – दंगल , हुंकार, हल्ला बोल,ताल ठोंक के। बातचीत से ज्यादा कुश्ती का संकेत देते हैं ये शीर्षक। इन चैनलों से भी बचने की जरूरत है। यह लोगों को मानसिक बीमार बना रहे हैं।

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