- वीरेंद्र नानावटी

लोकतंत्र:सवाल-दर-सवाल/भाग 2
क्या लोकतंत्र मर रहा है और चुनावों ने उसे जिंदा कर रखा है ये विडंबना ही है कि भारतीय लोकतंत्र विगत सालों से वैचारिक प्रतिबद्धता से दूर सिर्फ येन केन प्रकारेण सत्ता हथियाने, अपने मोहरों को माल-मलाई परोसने और पदों के निर्लज्ज लाभांश को वंशवाद की वसीयत बनाने का पैरोकार बन कर रह गया है!दुर्भाग्य से इस सियासी घमासान में,सारे दल आकंठ डूबे हुए हैं! गिनतियों में फर्क हो सकता है…लेकिन गिरने में नहीं इसी तिलस्म के चलते सभी राजनैतिक दलों के भीतर का लोकतंत्र मूर्छित पड़ा है! उसकी जगह मठाधीशों, सामंतों, क्षत्रपों और मैनेजरों ने ले ली है..! दलों पर या तो परिवारों का आधिपत्य हो गया है या वे एक कम्पनी मैनेजमेंट का हिस्सा हो गए हैं…! योग्यता, वैचारिक आंदोलन, मुद्दों की भीड़ंत और दलीय निष्ठाएं लाभ-शुभ के सियासी बाजारों में गुम हो गई है!उसकी जगह मोल-तौल और चारण चापलूसी की बाजीगरी ने ले लिया है..! कमोबेश यही स्थिति मीडिया सहित लोकतंत्र के चारों खंभों की हैं!
लोकतंत्र जातियों, मजहबों, वर्गों और प्रलोभनों के पोखरों में बंटा राजनीतिक तमाशा बन कर रह गया है..जिसमें हर पांचवें साल आम जनता मर्सिया पढ़ने को विवश है….!
क्योंकि लोकतंत्र हमारे यहाँ आंदोलन या कवायद नहीं है.. सिर्फ सत्ता छीनने-पाने का शगल है!जहाँ भीड़ की मूढ़ता है, छुटभैय्यों के नारे और चापलूसों के स्वार्थ हैं और सुविधाभोगी बेईमानों की सफेदपोश कुर्सियों के साथ भ्रष्टाचार की अनंत संभावनाएं हैं!
हमारी राजनीति ‘करो या मरो’ का नारा तो देती है, लेकिन अपना सिर सलामत रखना चाहती है!वो परिवर्तन का आव्हान तो करती है, लेकिन यथास्थिति उसे प्रिय है! वो सत्तावान होने का दम तो भरती हैं, लेकिन सुख उसे सत्ता की दलाली में ही मिलता है!
लोकतंत्र इसलिए भी शापित है कि गली-मोहल्लों से लेकर हस्तिनापुर के सियासी गलियारों तक विचार आधारित सत्ता की लड़ाई का जूनून नहीं.. सत्ता की दलाली का उन्माद हावी है.. जिसमें फौरी लाभ हथियाने का नशा है..ये नशा भी सबसे ज्यादा नई नस्ल और नई पीढ़ी को परोसा जा रहा है..सो मुद्दे गायब हैं और मोहरें ही लोकतंत्र के गांधारी बने बैठे हैं..!!