मप्र में बड़ा राजनीतिक किरदार है बसपा

 बसपा
  • हार के बाद भी बिगाड़ देती है कई क्षेत्रों में समीकरण

भोपाल/चिन्मय दीक्षित/बिच्छू डॉट कॉम। मप्र में बसपा भले ही यूपी की तरह स्थापित होकर सत्ता में नहीं आई है, लेकिन वह यहां के चुनावों में बड़े किरदार की भूमिका निभाती है। बसपा विधानसभा चुनावों में भले ही अधिक सीटें नहीं जीत पाती है, लेकिन कई सीटों पर भाजपा और कांग्रेस के प्रत्याशियों का गणित बिगाड़ देती है। इसलिए मप्र की चुनावी राजनीति में यह पार्टी भाजपा-कांग्रेस को सबसे अधिक डराती है। खासकर ग्वालियर-चंबल अंचल में। गौरतलब है कि 1990 के बाद बसपा ने उत्तर प्रदेश से सटे भिंड और मुरैना के रास्ते मप्र में प्रवेश किया। इन दोनों जिलों में इसका प्रभाव भी अच्छा खासा रहा।  बसपा का प्रदेश की कई सीटों पर बड़ा प्रभाव है। पिछले 30 वर्षों में मप्र विधानसभा चुनाव में भिंड और मुरैना की तीन-सीटों, शिवपुरी में एक, ग्वालियर में दो, व दतिया में इसे सफलता भी मिल चुकी है। जबकि, श्योपुर की जनता ने एक बार भी बसपा को मौका नहीं दिया। अंचल की 12 सीटों पर क्षेत्र के मतदाताओं ने बसपा को सहारा दिया। यही वजह रही कि अंचल में जब भी किसी नेता को भाजपा या कांग्रेस से टिकट नहीं मिलता तो वे हाथी की सवारी करते हैं। कई मौकों पर उन्हें जीत भी हासिल हो चुकी है। इस चुनाव में ही भिंड के लहार से टिकट न मिलने पर भाजपा के रसाल सिंह ने हाथी की सवारी करने में देर नहीं लगाई है। राजनीति के जानकार बताते हैं कि बसपा रूठे नेताओं की पहली पसंद इसलिए भी बनती है क्योंकि, इस पार्टी का यहां अपना बड़ा वोट बैंक है।
 तीसरे धड़े को भाजपा-कांग्रेस के बागियों का इंतजार
विधानसभा के मौजूदा चुनावी माहौल ने तीसरे धड़े के दलों को सकते में डाल दिया है। सत्तारूढ़ दल भाजपा और उसके बाद कांग्रेस की मजबूत स्थिति को इसके पीछे मुख्य वजह मानी जा रही है। राजनैतिक साख पर खड़ी चुनौती के इस संकट से उबरने की रणनीति के तहत इस धड़े की नजर जहां असंतुष्टों पर जम गई हैं। वहीं यह धड़ा भाजपा व कांग्रेस के बागियों का इंतजार भी कर रहा है। वजह यह भी है कि इन राजनैतिक दलों की नींव जाति, धर्म और वर्ग पर टिकी है। वोटों के ध्रुवीकरण के लिये कुछ दलों के तमाम प्रयासों के बाद जनता के बीच यह मुद्दे चर्चा में नहीं आ पाए। क्योंकि केंद्र और राज्य सरकार की योजनाओं के कारण सबका साथ सबका विकास का नारा चरम पर जा पहुंचा है। इसके बाद दूसरे बड़े दल में गिने जाने वाली कांग्रेस हथियार डालते हुए दिखाई दे रही है। इसको देखते हुए तीसरे धड़ा सभी 230 सीटों पर प्रत्याशी उतारने का साहस नहीं दिखा पाया है। प्रत्याशियों का संकट भी इसके पीछे बड़ा कारण बताया जा रहा है। माकपा, सपा और आम आदमी पार्टी जैसे दलों के लिये यह चुनाव चुनौती से कम नहीं है। बसपा जैसा दल भी राजनैतिक साख बचाने जहां गठबंधन के लिये मजबूर हुआ। वहीं प्रत्याशी  के अभाव में तीसरे दल भाजपा और कांग्रेस के असंतुष्टों पर निर्भर नजर आ रहा है। इन राजनीतिक दलों के अपने-अपने सरदार हैं, लेकिन इनमें कोई इतना असरदार नहीं है, जो अपने बूते पार्टी को दूसरे दलों के मुकाबले वोट दिला सके। इनमें समाजवादी पार्टी के रामायण सिंह, बहुजन समाज पार्टी के रमाकांत पिप्पल, आम आदमी पार्टी की रानी अग्रवाल का नाम भी इसमें शामिल हैं। हालांकि इनमें रानी सिंगरौली नगर निगम की महापौर हैं।
हर चुनाव में बिगाड़ती है खेल
प्रदेश में लगभग हर चुनाव में बसपा कई सीटों पर भाजपा और कांग्रेस का खेल बिगाड़ी है। वर्ष 1993 से बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशी को अटेर और लहार की जनता ने एक बार भी मौका नहीं दिया। जबकि गोहद, मेहगांव और भिंड में एक-एक बार मौका मिल चुका है। मेहगांव और गोहद विस क्षेत्रों में वर्ष 1993 में बसपा प्रत्याशी की जीत हुई थी। इसके बाद जनता ने एक भी बार बसपा के प्रत्याशी को मौका नहीं दिया। जबकि, भिंड में वर्ष 2018 में बसपा के प्रत्याशी संजीव कुशवाह को सफलता मिली थी। बतादें, भिंड से महज 35 किमी यूपी का इटावा और लहार से यूपी का जालौन लगा हुआ है। इस वजह से भिंड जिले में बसपा की पकड़ मजबूत रहती है। मुरैना जिले में बहुजन समाज पार्टी का गढ़ जौरा सीट रही है। बसपा यहां से तीन बार चुनाव जीत चुकी है। बसपा के यहां से दो बार सोनेराम कुशवाह और एक बार मनीराम धाकड़ को सफलता मिली। वहीं दिमनी सीट से वर्ष 2013 में बसपा के बलवीर डण्डोतिया, वर्ष 2008 में मुरैना से परशुराम मुदगल बसपा से चुनाव जीते थे। शिवपुरी के करौरा में वर्ष 2003 में बसपा से लाखन सिंह बघेल जीते थे। इनके लिए दस्यु गिरोह गडरिया गैंग ने प्रचार किया था। वर्ष 2018 में बसपा प्रत्याशी ने पोहरी में करीब 32 प्रतिशत मत हासिल किए थे और दूसरे स्थान पर रहे थे। करैरा में बसपा तीसरे स्थान पर रही थी। बसपा प्रत्याशी को करीब 40 हजार वोट मिले थे। जिले में पोहरी और करैरा में बसपा खासा प्रभाव रखती है और दोनों दलों को कड़ी टक्कर देती है। जबकि दतिया जिले में भी दो बार सफलता मिल चुकी है। ग्वालियर जिले की दो सीट भी पूर्व में बसपा जीत चुकी है।

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