दोनों एक दूसरे पर मरते रहे, कोई अल्लाह को प्यारा न हुआ

ताहिर फराज
  • राकेश श्रीमाल
    ताहिर फराज के इस शेर को थोड़ा रोमांस से अलग हटकर कलाओं के संदर्भ में देखा-समझा जाए। यूं तो इश्क और बेहद दर्जे की दीवानगी कलाकारों में अपनी रचनात्मकता के लिए होती ही है। यह दीगर और बड़ा विषय है कि वे किस स्तर की कला का सृजन करते हैं और उनका यह इश्क किस तरह बस्ती बसाता है या नाकाम हो जाता है। फिलहाल तो मुद्दे को उबड़-खाबड़ पठार से हटाकर समतल जमीन पर रखने का प्रयास किया जाए।
    शशि कपूर का सिनेमा के प्रति जो जुनून था, वह उन्हीं की बनाई फिल्म ‘जुनून’ में उन्हें ले डूबा। आखिर आग के इस दरिया में डूबकर ही जाना होता है। बहुत थोड़े होते हैं, जो मुख्यधारा में शरीक हो पाते हैं। लेकिन ऐसे कई उदाहरण हमारे अतीत में हुए हैं, जो इस ‘डूबने’ के बाद स्थाई रूप से मुख्यधारा में बने रह गए। भारतीय कला के विभिन्न अनुशासनों में उन कलाकारों की संख्या बहुत कम रही है, जो कला, जीवन और प्रेम के विमर्श में अपनी उल्लेखनीय दखल रखते हैं। हर दौर में हालात तो यह रहे हैं कि अधिकांश कला की महान विभूतियों को दूसरी कला से कोई मतलब नहीं है। उन्हें देखने-सुनने या पढ़ने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं रही। वे केवल अपनी ही कला से इश्क करते रहे। हालांकि इसके बहुत सारे कारण या तर्क उनके इस व्यवहार के पक्ष में भी है। दुखद तब होता है कि जब अधिकांश कलाकार, फिर वह गायक, वादक या नृत्यकार ही क्यों न हो, अपनी उपजी रचनात्मकता के लिए भी कोई विचार नहीं रखता। वे अपनी कला की तकनीक, उसके नियम-कायदे और अपने रियाज से बाहर कुछ भी नहीं सोच पाते। वे अपने हुनर से इश्क तो करते हैं, लेकिन उस इश्क की प्रक्रिया, उसकी धड़कनों और उसकी अनुभूतियों को दूसरों से साझा करना तो छोड़िए, आत्म-अभिव्यक्ति तक अनुभव नहीं कर पाते। जबकि पाब्लो पिकासो ने कहा है, ‘कला आत्मा से रोजमर्रा की धूल धो देती है।’
    इश्क में मर-मिटने और बेतरह तबाह हो जाने का अपना एक विरला सुख होता है। पर तब क्या किया जा सकता है, जब कमबख्त इश्क कला से हो। आज जब कला की लगाम पूरी तरह से बाजार के हाथों के नियंत्रण में है, यह इश्क का दावा खोखला और निरर्थक हो जाता है। चोरी करने की तरह इश्क भी ईमानदारी के साथ समर्पण-भाव की अपेक्षा रखता है, जिस पर बाजार ने अपना एकाधिकार कर लिया है। क्या समकालीन कला, विशेषकर इस कोरोना आक्रांत समय में, अपने होने को ठीक तरह से प्रस्तुत करने में, कलाकारों द्वारा ही अक्षम साबित हो रही है। क्या कला के प्रति उनका इश्क लिजलिजा और पिलपिला होता जा रहा है। बाजार ने उनके इश्क के संयम को इस तरह क्षत विक्षत कर दिया है कि वे धीर-गाम्भीर्य से परे छटकते जा रहे हैं। यद्यपि पिछली सदी में ही ऑस्कर वाइल्ड ने कह भी दिया है कि ‘कला दुनिया की एकमात्र गंभीर संरचना है और कलाकार ही एकमात्र ऐसा व्यक्ति है, जो कभी गंभीर नहीं होता।’  बात चूंकि इश्क में जप्त हो जाने की चल रही है तो विंसेंट वान गॉग की कही यह बात याद आती है कि ‘इश्क करने के अलावा और कुछ भी सही मायने में कलात्मक नहीं है।’ यहां वान गॉग कला से इश्क की बात तो कर ही रहे हैं, वे लोगों से प्यार करने की बात भी कर रहे हैं। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए वे यह भी कहते हैं कि ‘बहुत सी चीजों से प्यार करना अच्छा है, क्योंकि सच्ची ताकत वही है। जो बहुत प्यार करता है, वह बहुत कुछ करता है और बहुत कुछ कर सकता है। जो प्यार में किया जाता है, वह अच्छा ही होता है।’ क्या आज के लेखक-कलाकार यह कर पा रहे हैं? कला के लिए जुनून और दीवानगी तो भूल ही जाइए, वे तो (अधिकांश) बाजार के समक्ष लगभग बाजारू किस्म के अपने ही सांचे में ढले हुए इकतरफा प्रेम-याचक बन गए हैं। अंतत: कलाकार सबसे पहले मानव होता है। निश्चित ही उसके पास अतिरिक्त संवेदना और अनुभूतियाँ होती है। फिर भी वह अमानवीय व्यवहार कर सकता है। उससे भी समय-समय पर गलतियां हो सकती है। स्कॉट एडम्स तो यहां तक कहते हैं कि ‘अपने आप को गलतियां करने की अनुमति देना ही रचनात्मकता है। अंतत: कला ही जानती है कि किसे रखना है और किसे खारिज करना है।’
    यानी रचनात्मकता के मानदंड ही किसी को लेखक या कलाकार बनाते हैं और ये मानदंड किसी उष्णकटिबंधीय चक्रवात की तरह अचानक ही उपस्थित नहीं हो जाते। विरासत और परंपरा ही नवोन्मेष की उत्पत्ति करती है। आखिर नया वही है, जो पुराना नहीं है। लेकिन यह ‘नया’ उसी पुराने से उपजा है। नए की जड़ों में इतिहास से गिरे सूखे पत्तों की खाद भी शामिल है। कुमार गन्धर्व कहते थे कि वे कबीर के लिखे को हर बार नया गाते हैं, वैसा नहीं, जैसा पिछली बार गाया था। स्पष्ट है कि नया होना या समकालीन होना रचनात्मकता के उत्कर्ष को छूने जैसा ही होता है। हिंदी के शब्दकोश में और इसके बोल-व्यवहार में जितना भी दर्ज है, लेखक भाषा की उसी परिधि में बंधकर लिखता है, लेकिन पढ़ते हुए यह पता चल जाता है कि ऐसा निर्मल वर्मा ही लिख सकते हैं या इस तरह की भाषा की अदायगी मनोहरश्याम जोशी ही पेश कर सकते हैं। ठीक वैसे ही भीमसेन जोशी के गाए अभंग का जादू दूसरा अन्य कोई गायक पैदा नहीं कर सकता। कला से इश्क की अपनी आंतरिकता और बहिर्मुखता होती है। जो कलाकार-रचनाकार और उसके दर्शक-पाठक में परिवर्तनीय रूप से विभाजित रहती है। यह विभाजन कला या रचना के नए मुहावरों, नई भूमिकाओं और उसके नए जीवंत रूपों पर अवलंबित रहता है। कला से इश्क की असली परख या इतिहास की दृष्टि से उसकी अग्नि परीक्षा भी यहीं होती है। कलाकार की अपनी रचना के प्रति दीवानगी दुनिया भर के सुधि रसिकों की दीवानगी बन सकती है। विडम्बना यह है कि नित नई प्रयोगशीलता और विपणन की साहसी और खोजी तकनीकों से बाजार हमेशा अपने आप को चुस्त-दुरुस्त रखता है। ऐसे में अपनी ही कला से शास्त्रीय किस्म की दीवानगी रखना कलाकारों के लिए भी अब सम्भव नहीं रह गया है। उनकी समूची सम्भावना केवल अपने आप को खड़ा रखकर बचाए रखने की हो गई है। जो सेलेब्रिटी बन गए हैं, उन्हें बाजार ने निशुल्क गर्व (या घमंड) भी दे दिया है। वे अपने उसी गर्व से इश्क फरमाने लगे हैं। वे नहीं जानते कि प्रति पल बनता हुआ इतिहास अबाध गति से कला और व्यक्ति को नया आकार देता रहता है। वे यह भी नहीं जान पा रहे हैं कि भविष्य में वे उन जंग लगे तालों में तब्दील हो जाएंगे, जिनकी कुंजियां बीत चुके समय की अंधड़ में हमेशा-हमेशा के लिए गुम हो चुकी होंगी। कला और बाजार इसी तरह परस्पर इश्क करते रहे तो अल्लाह को प्यारा होने से वंचित हो जाएंगे। अमीर मीनाई ने अपने एक शेर में गजब बयां किया है – ‘अल्लाह-रे सादगी, नहीं इतनी उन्हें खबर / मय्यत पे आ के पूछते हैं, इन को क्या हुआ।’
    -लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार हैं

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