सहकारी समितियों में प्रशासक बनेंगे भाजपाई!

भाजपाई
  • सहकारिता चुनाव से परहेज …

भोपाल/बिच्छू डॉट कॉम। मप्र में सहकारिता चुनाव पिछले 12 साल से टलता जा रहा है। एक बार फिर से सहकारी समितियों के चुनाव अधर में लटकते दिख रहे हैं। ऐसे में  प्रदेश सरकार ने संगठन के सुझाव के बाद नया रास्ता ढूंढ निकाला है। सरकार प्रशासकों की जगह भाजपा के सहकारी नेताओं को मनोनीत करेगी। इसके लिए सहकारी समितियों में गैर प्रशासनिक और बिना निर्वाचन ही पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ताओं को बैठाने का मसौदा भी तैयार कर चुकी है। बीते महीने संगठन और सरकार के बीच इसको लेकर मैराथन बैठक भी हो चुकी है। वहीं संगठन ने जिलों में सक्रिय सहकारी क्षेत्र के नेताओं के नामों का पैनल भी मांगा है। जिला इकाई स्थानीय स्तर पर सहमति के बाद जो पैनल भेजेगी उसमें तीन से पांच नेताओं के नाम होंगे। प्रदेश स्तर पर इन्हीं में से एक का नाम समिति का प्रशासक बनाने चुना जाएगा। यानी सहकारी क्षेत्र के नेटवर्क पर भी बीजेपी अपनी पकड़ मजबूत करने का खाका खींच चुकी है। इसे कई जिलों में सहकारिता पर कांग्रेस की मजबूत पकड़ को ढीला करने की रणनीति भी बताया जा रहा है। जानकारी के अनुसार सहकारी समितियों की मतदाता सूची का काम लंबित रहने के चलते संगठन और सरकार सहकारी संस्थाओं में प्रशासक नियुक्त करने का मन बना रही है। प्रदेश भाजपा संगठन ने प्रशासक को लेकर जिलाध्यक्षों से तीन नामों का पैनल भेजन को कहा है। इस पैनल को लेकर जिले की कोर कमेटी से चर्चा की जाएगी। इसके बाद सर्वसम्मति से एक नाम फाइनल कर दिया जाएगा। गौरतलब है कि प्रदेश में सहकारी संस्थाओं के चुनाव किसी न किसी वजह से टलते आ रहे हैं। अंतिम बार यह चुनाव 2012 में हुए थे। तब कुछ बैंकों में कामकाजी समितियां बनाकर अध्यक्ष नियुक्त किए गए थे तो कुछ बैंकों में संचालक मंडल के चुनाव कराकर अध्यक्ष नियुक्त किए गए थे। इन अध्यक्षों का कार्यकाल पांच साल बाद खत्म हो गया था। इसके बाद सहकारी समितियों में चुनाव नहीं हुए और अधिकांश बैंकों और अन्य सहकारी संस्थाओं में सरकारी अफसरों को प्रशासक बनाकर बैठा दिया गया। इसके बाद से लगातार चुनावों की प्रक्रिया टलती रही और इन पदों पर सरकारी अधिकारियों का कब्जा रहा।  प्रदेश में 4500 प्राथमिक सहकारी साख समितियां है। इसके अलावा 38 केंद्रीय को-आपरेटिव बैंक हैं। कुप्रबंधन के कारण अधिकांश सहकारी संस्थाएं और बैंक घाटे में चल रहे हैं। पूर्व में सरकार ने कुछ बैंकों को अपनी गारंटी पर लोन दिलाकर घाटे से उबारने की कोशिश की थी पर इस प्रयास में भी सफलता नहीं मिल पाई थी।
6 साल पहले हुआ था संशोधन
2018 के विधानसभा चुनावों के कुछ महीने पहले सरकार ने सहकारिता अधिनियम में संशोधन करते हुए अधिकारियों के अलावा अशासकीय व्यक्तियों और सांसद, विधायकों को भी सहकारी संस्थाओं में प्रशासक बनाने का तय किया। इसके बाद अपेक्स बैंक समेत कुछ अन्य संस्थाओं, को-ऑपरेटिव बैंकों में सहकारिता से जुड़े पात्र सदस्यों को प्रशासक बनाया गया। 2018 में कांग्रेस सरकार आते ही अशासकीय व्यक्तियों को प्रशासक पद से हटा कर बोर्ड को भंग कर दिया गया। हालांकि सरकार गिरने से कुछ समय पहले कमलनाथ सरकार ने कुछ संस्थाओं में अशासकीय व्यक्तियों को प्रशासक बनाया पर भाजपा सरकार आते ही इन्हें हटा दिया गया। इसके बाद से ही बैंक और अन्य सहकारी संस्थाओं पर सरकारी अधिकारी प्रशासक बने बैठे हैं। इस मामले में हाईकोर्ट में भी जनहित याचिका दायर की गई थी, जिसमें हाईकोर्ट ने सरकार से इन समितियों में चुनाव कराने को कहा था। इन मामले में प्रक्रिया भी शुरू की गई पर अब तक कई समितियों में मतदाता सूची ही फाइनल नहीं हो पाई है।
सक्रिय नेताओं की राजनीति भी ठप हो चुकी
मप्र में सहकारिता क्षेत्र गांव-गांव में लाखों किसानों तक फैला हुआ है। इससे सीधे तौर पर 50 लाख से ज्यादा किसान और उनके परिवार भी जुड़े हैं। यानी प्रदेश में सहकारी क्षेत्र बहुत व्यापक है। बावजूद इसके बीते 12 सालों से प्रदेश में सहकारी क्षेत्र की संस्थाओं के चुनाव ही नहीं कराए गए हैं। सहकारी समितियां भंग पड़ी हैं और इनकी कमान प्रशासक के रूप में सरकारी अधिकारियों के पास है। सहकारिता चुनाव न होने के कारण इस क्षेत्र में सक्रिय नेताओं की राजनीति भी ठप हो चुकी है और कई नेता तो अपना अस्तित्व ही खो चुके हैं। सरकार बार-बार सहकारी समितियों के चुनाव टालती आ रही है। यह स्थिति तब और भी चिंताजनक हो जाती है, जबकि सरकार की कई महत्वपूर्ण योजनाओं का लाभ इन्हीं समितियों के माध्यम से किसान और अंचल के लाखों ग्रामीणों तक पहुंचता है। किसानों को रियायती दर पर उपलब्ध खाद-बीज से लेकर राशन वितरण तक का कामकाज सहकारी समितियों के माध्यम से ही होता है। अंचलों में कुछ गांवों को मिलाकर या पंचायत स्तर पर स्थानीय किसानों को जोड़कर समिति बनती है। इसके सदस्य किसान अपने बीच से प्रतिनिधि चुनकर भेजते हैं जो क्षेत्रीय सहकारी बैंक, जिला सहकारी बैंकों का संचालक मंडल बनाते हैं। इन्हीं के बीच से राज्य सहकारी बैंक यानी अपेक्स बैंक के संचालक मंडल में प्रतिनिधि पहुंचते हैं। यानी सहकारिता के माध्यम से किसान गांव से लेकर राज्य स्तर तक आपस में जुड़े होते हैं। सरकार के सहकारिता विभाग की योजनाओं का क्रियान्वयन इन्हीं बैंक और समितियों के जरिए होता है।
प्रशासकों की कार्यशैली से असंतुष्ट प्रदेश के किसान
प्रदेश में आखिरी बार सहकारिता के चुनाव साल 2013 में हुए थे। इनका कार्यकाल साल 2018 में पूरा हो चुका है। जिसके बाद से प्रदेश में 55 हजार से ज्यादा समितियां और सहकारी बैंकों के संचालक मंडल भंग हैं। इस स्थिति में शासन द्वारा नियुक्त प्रशासनिक अधिकारी प्रशासक के रूप में काम संभाल रहे हैं। वहीं अपने बीच के प्रतिनिधि न होने से कई समितियां डिफॉल्टर हो चुकी हैं। अतिरिक्त भार होने के कारण अधिकारियों की रुचि किसानों से जुड़ी समस्याओं को सुलझाने में नहीं होती। इस वजह से खाद-बीज वितरण से लेकर राशन वितरण में गड़बड़ी की शिकायतों में बीते कुछ वर्षों में खासा इजाफा हुआ है। समय पर खाद-बीज उपलब्ध नहीं होने और सहकारी सेक्टर से मिलने वाले फायदों से वंचित होने के कारण किसानों में भी नाराजगी बढ़ रही है।

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