
कभी-कभार: रत्नाकर त्रिपाठी
पहले हेमंत कटारे और अब उमंग सिंघार। मध्यप्रदेश में दो युवा तुर्कों से जुड़े घटनाक्रम व्यथित कर दे रहे हैं। कटारे और सिंघार राजनीति में ‘विकासशील’ की पायदान से ऊपर होकर ‘विकसित’ की श्रेणी तक पहुँच चुके थे। यदि 2018 के चुनाव में कटारे चुने जाते तो कमलनाथ की सरकार में उनका मंत्री बनना तय था। इधर सिंघार भी मंत्री रहते हुए अपने और राजनीतिक प्रमोशन का रास्ता बनाने की पूरी जुगत में लगे रहे। मीडिया और सोशल मीडिया में उनका अघोषित ‘हम भिया से जेब-जेब और गले-गले तक उपकृत हैं’ समूह सक्रिय रहा। ये हरकारे प्रकारांतर से सिंघार को राज्य में मुख्यमंत्री पद के लिए ‘टंच माल’ सिद्ध करने में जुटे थे।
लेकिन होनी को कौन टाल सकता है भला? कांग्रेस के तगड़ी संभावनाओं से भरे इन दो चेहरों को जैसे ग्रहण लग गया। मामलों की शुरूआत नितांत व्यक्तिगत मसलों से हुई। आरंभिक स्तर पर जो हुआ, उसमें दोनों पक्षों की सहमति वाला फैक्टर साफ महसूस किया जा सकता था। लेकिन बात शायद इससे आगे निकली और जंगल की आग की तरह उसे भी बेकाबू होने में समय नहीं लगा। देश के राजनीतिक परिदृश्य में ये दो अपनी तरह के दुर्लभ मामले नहीं हैं। राजनीति के अरण्य में कई कलयुगी विश्वामित्रों की तपस्या मेनकाओं के फेरे में भंग होना अब आम बात हो चली है। ऐसी कारगुजारियों का वर्णन तो दूर, मुख्य पात्रों का नाम भी लिखने बैठो तो कई महीने गुजर जाएंगे। सियासत में लंगोट के कच्चों की ये प्रावीण्य सूची है ही इतनी लंबी कि उसे पूरा पढ़ना या पढ़ाना संभव नहीं है। इसलिए बेहतर यही है कि ‘जानकारी पुस्तकालय में उपलब्ध है’ लिखकर जिज्ञासुओं को उनकी पसंद के अड्डे का रास्ता बता दिया जाए। बाकी कौन कीचड़ का प्रायोगिक स्वरूप बताने का प्रयास में अपने ही हाथ गंदे करे।
शायद सफलता की अंधाधुंध बढ़ती गति ही कई बार ऐसी गत होने की वजह बन जाती है। उससे बचना अब तो बहुत जिगर वाला काम बन गया लगता है। मैं ऐसा कहकर गलत करने वालों को जस्टिफाई नहीं कर रहा। मगर प्रगति की इस राह में इस तरह की अनंत लैंड माइंस बिछी होने लगी हैं कि कम लोग ही उस सफर को निरापद तरीके से पूरा कर पाते हैं। मेरी कई राजनेताओं से कोई खास निजी पहचान नहीं है। हाँ, कुछ से खासी वाकफियत रही है। इन्हीं में से एक की याद आ गयी। उस रात हम हमप्याला थे। घूँट-घूँट समाती तरंग ने उनके भीतर कूट-कूट कर साहस भर दिया। उन्होंने इस तरह के संबंधों की सहज और सुरक्षित उपलब्धता के ढेरों निजी अनुभव मुझसे साझा कर दिए। उनकी इस सत्यकथा में इस हमाम के कई और भी सफेदपोश किरदार निर्वस्त्र हुए। मैं तब और बुरी तरह चौंक गया, जब मुझे इस अघोषित ‘न्यूड क्लब’ के पूरी तरह अघोषित संरक्षकों के नाम गिनाये गए। उस समय मेरे भीतर इस धारणा ने साकार रूप ग्रहण किया कि चारित्रिक गंदगी किसी दल नहीं बल्कि अनगिनत दिलों का विशेषाधिकार बन चुकी है। जिसकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि उन्हें अब कोई नहीं उखाड़ सकता है।
मध्यप्रदेश के एक नेता इन दिनों अस्थायी जबरिया अवकाश झेल रहे हैं। उधर मतदाता और इधर पार्टी ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा। अस्तु वे बेचारे अब कभी नर्मदा तो कभी कुंदा या वेदा नदी के किनारे बैठकर लहरें गिनते हुए टाइम पास कर रहे हैं। लेकिन जब वो प्रभावशाली थे, तब उनके ही चलते राज्य के सियासी शब्दकोष में ‘चमड़े के जहाज’ शब्द का आविष्कार किया गया था। इसी फिसलन के चलते राजनीति में कई ध्रुव तारे अस्त होने के बाद पस्त हो चुके दिख रहे हैं। सौंदर्य से लेकर देह तक का यह पर्यटन भले ही आकर्षक लगे, लेकिन इसके भीतर की गंदगी कोई भला कैसे सहन कर सकता है! विषय वासना वाले इस विषय में केवल उन्हें दोषी न मानें, जो एक्सपोज हो गए। उनसे अनंत गुना अधिक संख्या में वो लोग हमारे आसपास ही विचरण कर रहे हैं, जिनकी ऐसी करतूतें उनके सौभाग्य और समाज के दुर्भाग्य से अब तक पकड़ी नहीं जा सकी हैं। राजनीति की बुनियादी शुचिता को खोखला करती इन दीमकों पर अब कोई भी पेस्ट कंट्रोल कारगर नहीं है और सेल्फ कंट्रोल तो दीमक का स्वभाव होता ही नहीं है।