- राकेश श्रीमाल

में इन दिनों सच और झूठ को लेकर बहुत विमर्श हो रहा है। राजनीतिक स्तर पर यह जितना निकृष्ट हो सकता है, हम उसके मात्र मूक गवाह के अतिरिक्त अन्य कुछ भी शेष नहीं रहे हैं। इसका निमित्त भले ही कोरोना की दूसरी लहर में ऑक्सीजन की कमी से इस दुनिया से अलविदा कर चुके आंकड़ों से हो। यह अलग दुखद स्थिति है कि भली-पूरी जिंदगी जीते हुए अचानक गुम हो गए लोग अब अनुपलब्ध ‘डाटा’ में बदल गए हैं। अतीक इलाहाबादी ने कहा है – ‘मैं कुछ कहूं भी तो कैसे कि वो समझते हैं/ हमारी जात हवा है, हमारी बात हवा।’
मीडिया के स्तर पर यह हवा-हवाई का जमाना चल रहा है। ऐसे में किसे फिक्र है कि जो भारतीय कलाओं और साहित्य पर कुछ कहें, और वह सुर्खियां बन जाए। यह विचारणीय मुद्दा है कि कलाकार और यथासंभव पढ़ने-लिखने वाले मुट्ठी भर लोग इसके पूर्व कभी इतने बेबस और असहाय नहीं हुए, जैसा कि इस कोरोना के आक्रांत दौर में हुए हैं। सत्ता का कला-संस्कृति के प्रति इतना अलगाव होना भी दुखती नस बन गया है। इस समय छपना और छुपाना प्रकान्तर में एक ही स्वर बनकर उभर रहा है। किस हद तक यह भारतीय लोक-संस्कृति में, उसकी आधुनिक कला-चेतना में सेंध लगा रहा है, फिलवक्त यह कहना मुश्किल ही है। हालांकि जावेद अख्तर का यह लिखा थोड़ी हिम्मत बंधाता है कि – ‘इन चिरागों में तेल ही कम था / क्यूं गिला फिर हमें हवा से रहे।’
शायद थोड़ी अनधिकृत पहल यह मैं कर रहा हूँ कि भारतीय कला-साहित्य को जिस आॅक्सीजन की दरकार है, उसे कब-कैसे और कौन आपूर्ति देगा। जो मंजर इन रचनात्मक भूमिकाओं में कार्यरत मानस ने पिछले सत्रह महीनों में देखा-भोगा है, उसका खामियाजा देना किस तरह से सम्भव हो पाएगा। विभिन्न राज्यों के और केंद्रीय संस्कृति महकमें से किसी तरह की कोई सकारात्मक उम्मीद अब नहीं बची है। तब यह समाज की उस व्यापकता की जिम्मेदारी होती है, जिसके जाने-अनजाने समूची बिरादरी एक विशिष्ट और विरली संस्कृति पर खड़ी हुई है। क्या विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों से लड़ाई लड़ती हमारी तमाम सिविल सोसायटी कभी सांस्कृतिक मुद्दों को भी शामिल करना पसंद कर पाएगी, जिसकी महती जरूरत इस समय है। इस तर्ज पर खुर्शीद तलब याद आते हैं, जो कहते हैं – ‘कोई चिराग जलाता नहीं सलीके से / मगर सभी को शिकायत हवा से होती है।’
यह हवा या ऑक्सीजन अगर हमें पालती-पोसती है, तो हमें भी इसका शुक्रगुजार होना चाहिए। जो दुर्भाग्य से इन दिनों कला की कथित समकालीनता से सरासर नदारद होता जा रहा है। अधिकांश लेखकों-कलाकारों को इसका इल्म ही नहीं है कि वे क्या रच रहे और छोड़ रहे हैं। कमबख्त कोरोना के इस काल में तो यह आत्म-मुग्धता को विस्तारित करने वाला ही साबित हुआ है, जिसका शिकार बड़ी संख्या में हुए हैं और वे कालांतर में अपनी क्षुद्र सफलताओं को शर्मनाक असफलताओं में परिवर्तित होते हुए देख भी पाएंगे।
इसी बीच दानिश सिद्दीकी अफगानिस्तान में गोलियों से भून दिन गए। अगर फोटोग्राफी कोई कला है, और वह पत्रकारिता से जुड़ी है, तो उनका नहीं रहना एक फोटोग्राफिक पत्रकार का नहीं रहना है। पुलित्जर पुरस्कार से नवाजे गए महज अड़तीस वर्ष के इस पत्रकार का नहीं रहने का अर्थ भी मीडिया नहीं बताएगा, उसे हमें खुद समझना होगा। यह जिक्र इसलिए कि हम एक ऐसे बेहया समय में जी रहे हैं, जहां अधिकांश आबादी बेसुधी में जी रही है। जिन्हें खुद पता नहीं कि वे क्या कर रहे हैं, अक्सर वे मौलवी बन जाते हैं। जुनून और जज्बा क्या होता है, यह अब हम दानिश सिद्दीकी के खींचे छायाचित्रों में खोज-देख सकते हैं। वैसे इस समय को भटकने का समय भी कहा जा सकता है। कोई कहना क्या चाह रहा है और वह क्या कहने लगा है, इस पर न कोई पाबंदी है, न ही कोई लिस्बन की घेराबंदी।
हम बहुत गर्व से कहते हैं कि हमारे लोकतंत्र का असल मंदिर तो संसद है। लेकिन उसी मंदिर की परिक्रमा करते हुए हमें यह एहसास भी होता है कि सच वह नहीं होता, जो घटित होता है। वह तो लालफीताशाही के आंकड़ों में बांधकर पेश किया जाता है। कोई मजाल है कि किसी केंद्रीय मंत्री ने भारतीय कला-संस्कृति में अपना जीवन गुजार चुके, और अब लगभग बेबस हो गए व्यक्तित्वों पर कोई फिक्र की हो। हमारे कला-संस्कृति से जुड़े तमाम विभाग और परियोजनाओं का हाल हम देख-समझ रहे हैं। यह अब हमें ही अपने स्तर पर समझना होगा कि हम, जो कि भले ही इस समाज में एक इकाई से अधिक महत्व नहीं रखते, उसकी जिम्मेदारी भी है। शायद इसीलिए नजीर कैसर ने लिखा है – ‘मैं अकेला उसे पुकारता था / अब हवा भी उसे पुकारती है।’
मुझे समझ में आता है कि बहुत सारे मित्र यह नहीं जान पा रहे होंगे कि मैं यह सब क्यों और किसलिए लिख रहा हूं। दरअसल इस नासमझी में उनकी कोई भूल मैं इसलिए नहीं मानता, कि वे इस समय की अमानवीय पाबन्दियों में रहना-जीना सीख गए हैं। वे न तो हमारे गौरवशाली सांस्कृतिक अतीत को देख पाते हैं और न ही भविष्य के अंधेरे में कोई रोशनी तलाश पाते हैं। ऐसे रचनात्मक व्यक्तित्व अब केवल और केवल अपने इसी वर्तमान में जीते हैं, जिनमें वे खुश, आत्मलीन और अपने निहायत ही छोटे परिवार का दायित्व-निर्वाह करने जैसी न मालूम किस तरह की प्रसन्नता में जागते-सोते रहते हैं। इस दौर के दिनमान में हकीकतन अब इसका कोई अर्थ नहीं रह गया है कि ‘कोई पत्ता हिले, हवा तो चले / कौन कैसा है, ये पता तो चले।’
बात ऑक्सीजन से शुरू हुई थी, जो इस देश की कला-संस्कृति के लिए इन हालातों में बेहद जरूरी है। अगर आंकड़ों की ही थोड़ी चर्चा की जाए, तो भारतीय कला-संस्कृति में कितनी गिरावट, कितना हतोत्साहन, कितनी निर्रथक निराशाएं इस कदर अपना भूदृश्य हासिल कर चुकी हैं, जिनसे निपटते हुए हमें पता नहीं, कितने वर्ष लग जाएंगे। लेकिन क्या हम इस कटु यथार्थ के जीवन में रहते हुए भी आखिर कुछ नहीं कर सकते। भगवत गीता से थोड़ा बहुत तो हम सीख ही सकते हैं। आखिर रसा चुगताई ने कहा ही है कि – ‘जा रहे हो किधर रसा मिर्जा / देखते हो हवा किधर की है।’
फिलहाल तो यहां मसला किसी पत्ते के हिलने से नहीं है और न ही उसके फलस्वरूप कोई हवा चलने से है। यह हमारी कलाओं को किसी तरह से बचाएं और जीवित रखने का है, जिस पर अमूमन इस समय का बुद्धिजीवी समाज भी कुछ नहीं सोचता।
-लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार हैं