- विनम्र श्रद्धांजलि
- पंकज मुकाती

अभय छजलानी- नईदुनिया, ये दो इंदौर की पहचान रहे हैं। नईदुनिया जो एक दशक पहले पहचान खो चुका। गुरुवार को अभय जी भी चले गए। अभय जी का जीवन काल 89 वर्ष की कोई संख्या मात्र नहीं है। ये हिंदी पत्रकारिता का एक पूरा दौर है। इस दौर में हिंदी ने अपनी साख बनाई। अंग्रेजी अखबारों की दिल्ली से चलने वाली कलम को धारदार मानने वाले हुक्मरानों को इंदौर से नई दुनिया ने बराबरी से अपने होने का अहसास कराया। कई मौकों पर दिल्ली के अखबार भी इंदौर की पत्रकारिता की ‘नई’ दुनिया देखकर हैरान रहते थे।
अखबार के इंच-इंच हिस्से, एक-एक शब्द को गरिमामय बनाये रखना सिर्फ नईदुनिया में ही संभव हुआ।हमारी पीढ़ी ने शुद्ध हिन्दी लिखना-पढऩा इसी अखबार से सीखा। आज के दौर में नामी अखबार प्रूफ रीडिंग को फिजूलखर्ची मानते हैं। लेकिन सालों पहले प्रूफ रीडर की लंबी टीम होना भाषा के प्रति उनकी गंभीरता को दर्शाता है। तब पत्र संपादक के नाम लिखना सम्मान का सूचक होता था। मुझे नौवीं और दसवीं कक्षा में पढऩे के दौरान साल में सर्वाधिक खेल पत्र लिखने के लिए दो बार नईदुनिया ने सम्मानित किया। उसी सम्मान को हासिल करने मेरी उनसे पहली मुलाकात नईदुनिया के दफ्तर में हुई। एक बड़े से हॉल में सबसे बड़ी मेज पर मेज के हिसाब के टेबल लैंप के नीचे बैठे हुई अभय जी से मेरी वो छोटी से मुलाकात हमेशा याद रहती है। नईदुनिया में छपे उन पत्रों ने मुझे अखबार के दफ्तर तक पहुंचाया, और अभय जी से उस मुलाकात के बाद मैंने भी पत्रकारिता को चुनने का मन बना लिया।
रीडर फ्रेंडली टर्म को सही मायनों में अभय जी ने ही कागज पर उतारा। रीडर फ्रेंडली के मायने उनके लिए पाठकों को कच्ची खबरें, तड़क-भड़क वाली तस्वीरें नहीं रहा। उनके लिए इसके मायने रहे पाठक की नजरों को अखबार चुभे नहीं, उसके फॉण्ट ऐसे हों कि उसकी आंखों पर जोर न पड़े। यही कारण है कि नईदुनिया की भाषा और उसके फॉण्ट दोनों रीडर को सहज लगते थे। अभय जी ने सरल भाषा के नाम पर हिंग्लिश और द्विअर्थी, चलताऊ शब्दों को अपनाने से हमेशा परहेज किया।हिंदी के अखबारों में लेआउट, डिजाइन के बारे में सोच विकसित करने वाला भी नईदुनिया रहा। इसी अखबार ने हिंदी के अखबारों को फोटो की महत्ता, फॉण्ट का सही इस्तेमाल। एकरूपता जैसे सूत्र दिए।
मुझे अच्छे से याद है जब कुछ प्रतिदंद्वी अखबारों ने अपने रंगीन पन्नों को लेकर विज्ञापन लगाए तो नई दुनिया ने सिर्फ एक पंक्ति में जवाब दिया-रंगों को बिखेरना और उसकी रंगोली सजाने में अंतर है। यही बिखेरने और सजाने के अंतर को अभयजी ने हमेशा जिन्दा रखा। पिछले कुछ सालों में अखबारों में व्हाइट स्पेस और ब्रीदिंग स्पेस की महत्ता न्यूजरूम में खूब सुनाई जाती है। नईदुनिया करीब छह दशक पहले ही ये सब प्रयोग आजमा चुका था। डिजिटल चोरी के इस युग में ये सब सोचना, करना आसान है, पर छह दशक पहले ये सब करने के लिए अखबार में रात-दिन डूबे रहना पड़ता होगा। अभय जी ने वाकई अखबार को जिया है।
सत्ता की गलतियां बताना हो या समाज के हित में आवाज उठाना हो। दोनों में नईदुनिया हमेशा आगे रहा। आपातकाल में भी उसकी कलम चली। इंदौर में नर्मदा का जल लाने के लिए पन्ना खाली छोड़ देने का साहस भी यहीं हुआ। इस सांकेतिक विरोध का आज भले मजाक उड़ाया जाए पर इस दौर में संकेत में भी सच लिखने का साहस पत्रकारिता में कमजोर हुआ है।
हिंदी पत्रकारिता को नया कलेवर, तेवर देने वाले अभय जी ने अब नई दुनिया में कदम रख दिया है।