
भोपाल/हरीश फतेहचंदानी/बिच्छू डॉट कॉम। सरकार की उपेक्षा की वजह से अब प्रदेश में धीरे-धीरे कर्मचारियों में नाराजगी बढ़ती ही जा रही है। इसकी वजह है सरकार द्वारा इस वर्ग को लेकर की जा रही उपेक्षा है। खास बात यह है कि कर्मचारियों के कल्याण के लिए बनाए गए कर्मचारी आयोग की हालत उस सफेद हाथी की तरह हो गई है जो दिखने में तो हाथी नजर आता है, लेकिन वह किसी काम का नहीं होता है। इसकी वजह है सरकार द्वारा इस आयोग की घोर उपेक्षा की जाना। इसकी वजह से यह ऐसा आयोग हो गया है जिसमें कोई पदाधिकारी ही नहीं है, फिर भी सरकार उसका कार्यकाल लगातार बढ़ा रही है। यह हाल प्रदेश में तब हैं जबकि ,सरकार द्वारा हाल ही में एक साथ 25 निगम मंडलों में राजनैतिक नियुक्तियां की गई हैं। इस बीच आयोग को अपने पदाधिकरियों का इंतजार है की समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रहा है। हालात यह हैं कि आयोग में ने तो कोई अध्यक्ष है और न ही सदस्य हैं, इसके बाद भी सरकार द्वारा अब तक उसका दो बार कार्यकाल बढ़ाया जा चुका है। ऐसे में कर्मचारियों का कल्याण कैसे होगा, इसको कोई नहीं जानता है। यही नहीं विभिन्न विभागों से कर्मचारियों की समस्याओं के निराकरण के लिए कर्मचारी आयोग को प्रतिवेदन भेजे गए, लेकिन इन पर कोई कार्रवाई नहीं की गई है।
कर्मचारियों का कहना है कि जब आयोग में कोई प्रतिनिधि ही नहीं है, तो उसका कार्यकाल बढ़ाने का औचित्य क्या है? दरअसल, कमलनाथ सरकार ने अपने वचन पत्र में किए गए वादे के मुताबिक 12 दिसंबर, 2019 को कर्मचारी आयोग का गठन किया था। उस समय आयोग का अध्यक्ष सेवानिवृत्त आईएएस अजय नाथ को और वित्त विभाग के सेवानिवृत्त उप सचिव मिलिंद वाईकर को सचिव नियुक्त किया गया था। इसके अलावा कर्मचारी नेता वीरेंद्र खोंगल, सेवानिवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश योगेश कुमार सोनगरिया, राज्य योजना आयोग के तत्कालीन सलाहकार अखिलेश अग्रवाल, जीएडी और वित्त विभाग के सचिव को बतौर सदस्य बनाया गया था। उस समय आयोग का कार्यकाल एक वर्ष तय किया गया था। आयोग के दायरे में राज्य सरकार के अधिकारी-कर्मचारियों, निगम-मंडलों, अर्ध सरकारी संस्थाओं के मुलाजिमों के साथ संविदा कर्मचारी, अंशकालिक और पूर्णकालिक वेतन पाने वालों को रखा गया था। आयोग के गठन का मकसद कर्मचारियों की वेतन विसंगतियों समेत अन्य समस्याओं का अध्ययन कर आवश्यक सुझाव सरकार को देना था। इन सुझावों पर सरकार को कदम उठाने थे। इसके गठन के बाद अपने पहले ही कार्यकाल में आयोग ने विभिन्न मान्यता प्राप्त और गैर मान्यता प्राप्त कर्मचारी संगठनों के पदाधिकारियों के साथ बैठकें कर उनकी समस्याएं सुनकर प्रतिवेदन तैयार किया था। यह सिफारिशें राज्य शासन को सौंपने से पूर्व ही आयोग का कार्यकाल पूरा हो गया और सिफारिशें ठंडे बस्ते में चली गई। आयोग का पहला कार्यकाल पूरा होने के एक दिन पहले ही प्रदेश सरकार ने दिसंबर 2020 में पहली बार उसका कार्यकाल बढ़ाने के आदेश जारी किए थे। हालांकि आयोग के अध्यक्ष व सदस्यों का कार्यकाल 11 दिसंबर, 2020 तक ही रखा गया और तब कहा गया था कि आयोग के पुनर्गठन और अध्यक्ष व सदस्यों के नए मनोनयन की कार्रवाई अलग से की जाएगी। इसके बाद एक साल से अधिक का समय निकल गया, लेकिन सरकार ने आयोग के पुनर्गठन में कोई रुचि ही नहीं ली। इस बीच एक बार फिर से हाल ही में सरकार द्वारा फिर से आदेश जारी कर आयोग के कार्यकाल में एक साल की वृद्धि कर दी गई है। इसकी वजह से अब आयोग का कार्यकाल 11 दिसंबर, 2022 तक हो गया है।
इस मामले में कर्मचारियों का कहना है कि सरकार कर्मचारी आयोग का कार्यकाल बढ़ाकर कर्मचारियों को सिर्फ लॉलीपाप देने का काम कर रही है। उनका कहना है कि बिना अध्यक्ष और सदस्यों के कर्मचारी आयोग को कोई मतलब ही नहीं रह जाता है। उनका कहना है कि सरकार को आयोग का तत्काल पुनर्गठन कर उसके द्वारा पूर्व में तैयार किए गए प्रतिवेदन पर कार्रवाई करना चाहिए।
भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र में किया गया था वादा
वर्ष 2013 में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में कर्मचारी आयोग गठित करने का वादा किया था। इसके बाद प्रदेश की शिव सरकार इस वादे को भूल गई। करीब छह साल बाद प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद इस आयोग का गठन किया गया था। अब एक बार फिर कर्मचारियों के विभिन्न संगठन इस आयोग के पुनर्गठन की मांग कर रहे हैं। इसको लेकर उनके द्वारा बीते दो माह से मांग की जा रही है। आयोग का गठन करना उचित रहेगा।
अब सरकार कर रही समिति पर विचार
कर्मचारियों के मोर्चे द्वारा इस मामले में करीब दो माह पहले सीएम को लिखे पत्र में कहा गया कि सरकार ने आयोग की परिकल्पना बंद कर दी और अब पुन: कर्मचारी कल्याण समिति की परिकल्पना पर विचार किया जा रहा है। वहीं, समिति के अध्यक्ष के पद पर किसी सेवानिवृत्त कर्मचारी को अध्यक्ष का दायित्व दिए जाने की तैयारी की जा रही है, जो ठीक नहीं है। क्योंकि समिति को कोई संविधानिक/वैधानिक अधिकार न होने के कारण वह कर्मचारियों के वेतन विसंगति, क्रमोन्नति एवं अन्य विषय पर नियमानुसार निर्णय नहीं ले पाती है। पिछले 15 साल में देखने में आया है कि समिति के पूर्व अध्यक्षों का कर्मचारी संगठनों से ठीक तरह से संवाद नहीं रहा। वहीं, वाद-विवाद के मामले भी सामने आए।
कर्मचारियों की यह हैं मांगें
– जिला मुख्यालयों पर आवास बने।
– दैनिक वेतनभोगी कर्मचारियों को रिक्त स्थानों पर नियमित करने के लिए आरक्षण नीति हो।
– 50 वर्ष से अधिक उम्र के सरकारी कर्मचारियों को अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारियों की तरह अनिवार्य वार्षिक स्वास्थ्य जांच हो।
– संविदा कर्मचारियों के लिए मानव संसाधन नीति बने।
– कर्मचारी कल्याण कोष हो।
– कर्मचारियों को तृतीय समयमान वेतनमान का लाभ दिया जाए।
– अनुकंपा नियुक्ति के नियमों में परिवर्तन हो।
– कार्यभारित कर्मचारियों की सुविधाओं में विस्तार किया जाए।
– अच्छा काम करने वाले शिक्षक व कर्मचारियों को राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भी शिक्षण एवं प्रशासनिक विधि और ट्रेनिंग दी जाए।
– सरकारी सेवाओं को होम लोन उपलब्ध कराने के लिए बैंक से कर्ज के लिए सरकार गारंटर बने। सरकार के सेवाकर्मी की आय के आधार पर 30 लाख रुपए तक का लोन न्यूनतम दर पर मिले।