
- मोदी का दांव… शिव‘राज’ खुशहाल
2023 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व और संघ ने मप्र संगठन और सरकार को 51 फीसदी वोट का टारगेट दिया है। इस टारगेट को पूरा करने के लिए पार्टी कई जतन कर रही है। ऐसे में एनडीए द्वारा द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित करना मप्र भाजपा के लिए किसी लॉटरी से कम नहीं है। जिस तरह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और भाजपा प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा ने मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने का जश्न मनाया, उससे ऐसा लगता है जैसे सत्ता और संगठन को 51 फीसदी वोट का फॉर्मूला मिल गया है।
गौरव चौहान/बिच्छू डॉट कॉम
भोपाल (डीएनएन)। 2018 के चुनाव में 41.5 फीसदी वोट मिलने के बावजूद सत्ता से बाहर हुई भाजपा ने 2023 के चुनाव में 51 फीसदी वोट लाने का लक्ष्य तय किया है। इस लक्ष्य को पाने के लिए पार्टी सत्ता में आते ही जुट गई है। इसके लिए पार्टी ने सभी वर्गों को साधने के लिए तमाम तरह के जतन किए हैं। पार्टी को उम्मीद है कि अगर 22 फीसदी आदिवासी वोट अगर भाजपा के पक्ष में आ जाए तो यह लक्ष्य आसानी से पाया जा सकता है। ऐसे में आदिवासी समाज की नेत्री द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाना मप्र के लिए बड़ी उम्मीद बनकर सामने आया है। बता दे, मध्यप्रदेश में आदिवासियों की आबादी दो करोड़ से ज्यादा है और देश के सर्वोच्च पद के लिए अपने समाज से उम्मीदवार का घोषित होना एक गर्व की बात है, जिसका जश्न मनाना तो बनता है। दरअसल, द्रौपदी मुर्मू आदिवासी समाज से ही आती है। उन्होंने आदिवासियों के हितों और उत्थान के लिए एक लंबी लड़ाई लड़ी है, जिसके बाद वह आज इस ओहदे पर पहुंच सकी है। वह हमेशा से ही आदिवासियों, बालिकाओं के हितों को लेकर सजग रहीं। आदिवासियों से जुड़े मुद्दों पर वे कई बार सरकार को सीधे निर्देश देते हुए नजर आईं है।
मप्र में आदिवासी संख्या दो करोड़ से अधिक होने के कारण, यह 84 विधानसभा सीटों पर सीधे सीधे असर डालती हैं। 2018 के चुनाव में प्रदेश की 230 में से 82 सीटें आरक्षित थीं। इसमें से भाजपा 34 सीट ही जीत सकीं थी। 25 सीटों पर भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा। अनुसूचित जाति की 47 सीटों में से 30 पर वर्तमान में कांग्रेस काबिज है और 17 भाजपा। अब भाजपा कांग्रेस के खाते वाली 30 सीटों पर कब्जा जमाना चाहती है। मध्यप्रदेश की चुनावी रणनीती को भाजपा ने अंतिम रूप देना शुरू कर दिया है। पार्टी के सूत्रों के मुताबिक इस बार मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में पार्टी की रणनीति अपने वोट शेयर को कम से कम 51 प्रतिशत तक पहुंचाने का है । इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए भाजपा ने एससी और एसटी समुदायों के बीच अपनी पैठ को और मजबूत करने का फैसला किया है। पार्टी लगातार इस वर्ग से जुड़े मुद्दों को उठा रही है और कांग्रेस के इस वोट बैंक में सेंधमारी के लिए लगातार काम कर रही है। पार्टी ने इसके लिए एक प्लान तैयार किया है। वैसे भारतीय संविधान में सदियों से पीडि़त, शोषित व पिछड़े हुए लोगों, विशेष रूप से आदिवासी जनजातियों के विकास व उत्थान की समुचित व्यवस्था की गई है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात इस वर्ग को विकास की मुख्य धारा से जोडऩे व वर्गहीन, शोषण-रहित व भयमुक्त समाज की स्थापना के उद्देश्य से देश में अनेकानेक योजनाएँ चलाई गई हैं। मध्य प्रदेश सरकार ने भी इस वर्ग के सर्वांगीण विकास हेतु प्रदेश में शैक्षिक, आर्थिक व सामाजिक कार्यक्रमों को उच्च प्राथमिकता के आधार पर संचलित किया है। वर्तमान में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों के आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के व्यक्तियों के आर्थिक तथा सामाजिक उत्थान एवं चहुंमुखी विकास के लिये अन्त्योदय योजना चलाई जा रही है।
22 प्रतिशत आदिवासी वोट पर फोकस
आगामी विधानसभा चुनाव में 51 फीसदी वोट के टारगेट को पूरा करने के लिए भाजपा का पूरा फोकस 22 फीसदी आदिवासी वोट बैंक पर है। इस वोट बैंक को पाने के लिए प्रदेश में आदिवासियों पर आधारित कई कार्यक्रम आयोजित किए जा चुके हैं। दरअसल, विधानसभा चुनाव 2018 के परिणाम के बाद भाजपा को आदिवासी वोट की ताकत का अंदाजा हो गया है। यही वजह है कि मिशन 2023 के लिए भाजपा का फोकस आदिवासियों पर है। इसके लिए सितंबर 2021 में अमित शाह जबलपुर में राजा शंकरशाह-कुंवर रघुनाथ शाह के 164वें बलिदान दिवस कार्यक्रम में शामिल हुए थे। इसके बाद जनजातीय गौरव दिवस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भोपाल आए। उन्होंने हबीबगंज रेलवे स्टेशन का नाम गौंड रानी कमलापति के नाम पर किया। फिर भोपाल में अमित शाह तेंदूपत्ता संग्राहक सम्मेलन में शामिल हुए। 2013 के विधानसभा चुनावों में, भाजपा ने इन 47 आदिवासी सीटों में से 37 पर जीत हासिल की थी और लगातार तीसरी बार सत्ता बरकरार रखी थी। हालांकि, 2018 में, कांग्रेस ने इस सीटों में से 31 सीटें जीतीं, जिससे भाजपा को यहां सिर्फ 16 सीट मिली थी। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को 41.02 फीसदी वोट मिले थे, जबकि कांग्रेस को 40.89 फीसदी वोट मिले थे। सीटों के मामले में भाजपा को 109 और कांग्रेस को 114 सीटें मिली थी।
2011 की जनगणना के मुताबिक मध्य प्रदेश में 43 आदिवासी समूह हैं। प्रदेश में आदिवासियों की आबादी 2 करोड़ से ज्यादा है, जो 230 में से 84 विधानसभा सीटों पर असर डालती है। इनमें सबसे ज्यादा आबादी भील-भिलाला करीब 60 लाख, तो गोंड जनजाति की आबादी करीब 50 लाख है। कोल 11 लाख, तो कोरकू और सहरिया करीब छह-छह लाख हैं। करीब 10 साल बाद ये आंकड़े काफी हद तक बदल चुके हैं। प्रदेश में वर्ष 2023 के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं। इसलिए भाजपा का फोकस आदिवासी वर्ग के कल्याण की योजनाएं बनाने पर दिखाई पड़ रहा है। दरअसल, मप्र में 22 प्रतिशत आदिवासी हैं, जो विस की करीब 82 सीटों पर प्रभाव रखते हैं। प्रदेश में भाजपा की सत्ता बरकरार रखनी है, तो इन्हें साथ लेना जरूरी है। विकास के मुद्दे पर भाजपा कमजोर न पड़े, इसके लिए गरीब कल्याण की योजनाओं को आदिवासी क्षेत्रों पर फोकस करते हुए गढ़ा जा रहा है। जैसे, राशन आपके द्वार योजना, जिसमें आदिवासी गांवों तक राशन पहुंचाया जा रहा है। इसके लिए वाहन भी युवाओं को दिए हैं। इसी तरह प्रधानमंत्री आवास, मुफ्त राशन, रोजगार दिवस, घरों तक नल से पानी पहुंचाने सहित कई योजनाओं का रुख आदिवासी क्षेत्रों की ओर मोड़ दिया गया है।
भाजपा के सामने चुनौती
भाजपा के पास आदिवासी चेहरों की कमी की चुनौती बनी हुई है। इसके बावजूद भाजपा प्रदेश में अपना वोट शेयर 50 प्रतिशत के पार ले जाने के लिए प्रयासरत है, जो आदिवासी समुदायों को जोड़े बिना संभव नहीं है। प्रदेश में आदिवासी लगभग 21 प्रतिशत हैं। वर्ष 2003 के विधानसभा चुनाव में भाजपा का वोट शेयर 42.5 प्रतिशत, वर्ष 2008 में 37.6 प्रतिशत, वर्ष 2013 में 45.7 प्रति. एवं वर्ष 2018 में घटकर 41.5 प्रतिशत हो गया। भाजपा का लक्ष्य आदिवासी वोट को भी दस प्रतिशत बढ़ाने का है। यही वजह है कि भाजपा लगातार केंद्रीय नेताओं की मौजूदगी में बड़े आयोजन कर आदिवासियों को संदेश देना चाहती है कि वह उनकी सबसे बड़ी हितैषी पार्टी है। शिक्षा और सस्ते राशन के बाद भी मध्यप्रदेश में सबसे ज्यादा भुखमरी और कुपोषण के शिकार आदिवासी ही हैं। मध्यप्रदेश में आदिवासियों की आबादी डेढ़ करोड़ से ज्यादा है। इनमें भी एक तिहाई भील और इससे कुछ कम आबादी गोंड आदिवासियों की है। वैसे राज्य में 43 से ज्यादा आदिवासी जनजातियां हैं, लेकिन इनमें भी 6 जनजातियां कुल आदिवासी आबादी का 92 फीसदी हैं। जिन बिरसा मुंडा की स्मृति में यह महाआयोजन हो रहा है, उस मुंडा समुदाय की मप्र में जनसंख्या केवल 5 हजार है।
कुल की करीब 22 फीसदी आबादी होने से मप्र में 47 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। दरअसल सारा खेल इन्हीं सीटों पर काबिज होने का है। 2003 के पहले तक मप्र की अधिकांश आदिवासी सीटों पर कांग्रेस का ही कब्जा रहा। कुछ अपवाद छोड़ दे तो इसका बड़ा कारण कांग्रेस के अलावा किसी दूसरी पार्टी की आदिवासियों तक ज्यादा पहुंच ही नहीं थी। बीच में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी जैसे दलों ने गोंड इलाकों में जरूर कुछ जोर मारा दिखाया। यूं भी राज्य में सभी आदिवासी समुदाय भाषा, रहन-सहन, संस्कृति,परंपरा और भौगोलिक हिसाब से बंटे हुए हैं। केवल आदिवासी होना ही उनके बीच समान सूत्र है। आदिवासियो के बढ़ते धर्मांतरण के बीच बीते तीन दशको से आरएसएस और भाजपा ने आदिवासी इलाकों में अपनी पैठ बनाई है। जिसका नतीजा रहा कि 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा 47 आदिवासी सीटों में से 31 सीटे जीतने में कामयाब रही। आदिवासी क्षेत्रों में ईसाई मिशनरियो की सक्रियता के मद्देनजर संघ ने आदिवासियों को हिंदुत्व से जोडऩे की पुरजोर कोशिश की है। लेकिन 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 25 आदिवासी सीटें गंवा दीं और ये ज्यादातर कांग्रेस ने जीत लीं। संदेश गया कि आदिवासी इलाकों में कांग्रेस की पैठ ज्यादा गहरी है, बजाए भाजपा के। अब चुनौती दोनो दलों के सामने है। भाजपा के समक्ष चुनौती यह है कि वह आदिवासी वोट बैंक को अपने भरोसेमंद वोट के रूप में कैसे तब्दील करे, जबकि कांग्रेस के सामने सवाल यह है कि वो भाजपा की आक्रामक रणनीति के चलते अपने परंपरागत आदिवासी वोट बैंक को कैसे बचाए रखे।
भाजपा के लिए ट्रंप कार्ड हैं द्रौपदी मुर्मू
द्रौपदी मुर्मू के नाम से भाजपा ने आने वाले विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ा पासा फेंका है। प्रकाश के मुताबिक भाजपा ने न सिर्फ उड़ीसा बल्कि देश के सभी आदिवासी प्रदेशों में अपनी मजबूत पकड़ बनाने के लिए संदेश देना शुरू कर दिया है। उड़ीसा, मध्यप्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसे राज्यों में आदिवासियों की अच्छी खासी तादाद है…भाजपा ने उड़ीसा की आदिवासी महिला नेता और झारखंड की पूर्व गवर्नर द्रौपदी मुर्मू पर दांव लगा कर क्या वास्तव में कोई ऐसा ट्रंप कार्ड चला है, जो भाजपा के लिए आने वाले चुनावों में सफलता की नई इबारत लिखने वाला है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा ने अनुसूचित जनजाति की महिला का नाम आगे करके न सिर्फ राजनीतिक बल्कि सामाजिक निशाने भी साध लिए हैं। जिसका असर पार्टी को आने वाले विधानसभा से लेकर लोकसभा चुनावों में तो दिखना तय माना ही जा रहा है, साथ ही पार्टी की छवि राजनैतिक ही नहीं बल्कि समाज में एक विशेष जाति समुदाय के लोगों को आगे बढ़ाने की भी बन रही है। जो भाजपा को एक विशेष राजनीतिक ताने-बाने से हटकर सामाजिक सरोकार की ओर भी बढ़ा रही है।
भाजपा ने उड़ीसा से अनुसूचित जनजाति समुदाय से आने वाली द्रौपदी मुर्मू के साथ न सिर्फ उड़ीसा में अपनी पहुंच और पकड़ मजबूत की है। बल्कि देश की तकरीबन 11 करोड़ से ज्यादा आदिवासी समुदाय में अपनी अलग छाप छोडऩे का प्रयास भी किया है। आदिवासियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए बनाए गए राष्ट्रीय आयोग के पूर्व सदस्य अर्जुनराम गौंड कहते हैं कि द्रौपदी मुर्मू के नाम को देश के सबसे पिछड़े समुदाय को आगे लाने की प्रक्रिया के तौर पर देखा जाना चाहिए। अर्जुन कहते हैं कि इसमें जो लोग राजनीति तलाश रहे हैं दरअसल वे लोग देश के सबसे पिछड़े समुदाय के लोगों को आगे आने और उनमें सकारात्मकता का अहसास कराने से रोकना चाहते हैं। गौंड कहते हैं कि भाजपा ने द्रौपदी मुर्मू के नाम से राजनैतिक दांव चला या नहीं, यह चर्चा का विषय होना ही नहीं चाहिए। वह कहते हैं कि किसी पार्टी ने पहली बार आदिवासी और उसमें भी महिला को देश की राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर उतारा है। यह इस समाज के लिए न सिर्फ सम्मान की बात है बल्कि देश की समरूपता को भी दर्शाता है। राजनैतिक विश्लेषकों का कहना है कि द्रौपदी मुर्मू के नाम से भाजपा ने आने वाले विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ा पासा फेंका है। प्रकाश के मुताबिक भाजपा ने न सिर्फ उड़ीसा बल्कि देश के सभी आदिवासी प्रदेशों में अपनी मजबूत पकड़ बनाने के लिए संदेश देना शुरू कर दिया है। उड़ीसा, मध्यप्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसे राज्यों में आदिवासियों की अच्छी खासी तादाद है। इनमें से कुछ राज्यों में अगले कुछ महीनों में विधानसभा चुनाव भी हैं। इसलिए द्रौपदी मुर्मू के नाम से देश के तकरीबन 11 करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले आदिवासी राज्यों में भाजपा का वोट बैंक मजबूत माना जा सकता है।
आपसी समरूपता की निशानी
राजनीतिक विश्लेषक ओम प्रकाश पवार कहते हैं कि भाजपा सिर्फ विधानसभा के चुनाव ही नहीं बल्कि लोकसभा के चुनावों में भी द्रौपदी मुर्मू की विजय के साथ बहुत खुश रखने की कोशिश करेंगी। पवार कहते हैं दरअसल भाजपा ने आदिवासी समुदाय की महिला को आगे करके राजनैतिक हलकों के अलावा समाज के गैर आदिवासी समुदाय में भी जबरदस्त तरीके से संदेश देने की कोशिश की है। वे कहते हैं कि जिस समुदाय के लोगों को पहले की राजनीतिक पार्टियां राष्ट्रपति जैसे पद का उम्मीदवार नहीं घोषित करती थीं, अगर आज भाजपा उसी आदिवासी समुदाय की महिला को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाती है, तो इसे एक आपसी समरूपता की निशानी के तौर पर देखा जाना चाहिए। राजनीतिक विश्लेषक और चुनावों में सर्वे करने वाली एक प्रमुख एजेंसी से जुड़े हरीश टम्टा कहते हैं कि द्रौपदी मुर्मू के नाम को भाजपा की ओर से राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाए जाने की पेशकश हैरान करने वाली नहीं है। हरीश के मुताबिक भाजपा हमेशा से चौंकाने वाले ही नाम सामने लेकर आती है। उनका कहना है कि द्रौपदी मुर्मू के बहाने भाजपा ने दो चीजों में स्पष्ट रूप से संदेश दिया है। एक तो भाजपा ने समाज के उस आदिवासी समुदाय को अंतर्राष्ट्रीय पटल पर सामने रखने की कोशिश की है, जो पूरी दुनिया में सबसे पिछड़े माने जाते हैं। भाजपा ने आदिवासी समुदाय को तो जोड़ा ही है, बल्कि उसके साथ महिला आदिवासी को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार घोषित किया है। यह महिलाओं की सशक्त क्षमता को भी प्रदर्शित करते हुए अपनी पार्टी से जोडऩे का एक निश्चित तौर पर प्रयास है।
हरीश के मुताबिक इसके राजनीतिक मायने भी बिल्कुल स्पष्ट हैं। खासतौर से उड़ीसा में होने वाले विधानसभा के चुनावों से लेकर मध्यप्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसे आदिवासी बाहुल्य इलाकों में जहां पर आदिवासियों की अधिकता है, उनसे सीधे कनेक्ट किया है। इसके अलावा पूर्वोत्तर में भी मिजोरम जैसे राज्यों में जहां आदिवासियों की बहुलता है उनसे भी सीधे कनेक्ट करने की पूर्वोत्तर के राज्यों में भी एक कोशिश मानी जा सकती है। हरीश कहते हैं कि पहले कयास लगाए जा रहे थे कि राष्ट्रपति पद पर संभवतया दक्षिण से कोई व्यक्ति भाजपा की ओर से प्रत्याशी बनेगा। क्योंकि आगामी लोकसभा के चुनावों के लिहाज से दक्षिण भारत के प्रत्याशी को सामने लाकर वहां के राजनीतिक समीकरणों को साधा जा सकता था। लेकिन भाजपा ने राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवारी में इस तरीके का न कोई प्रयास किया और न ही उम्मीदवारी में इसका कोई अक्स झलकता है। राजनीतिक विश्लेषकों का सीधा-सीधा मानना है कि द्रौपदी मुर्मू के नाम के साथ भाजपा ने राजनीतिक और सामाजिक समीकरणों को बखूबी साधा है।
आदिवासी वोट पर नजर
प्रदेश में 2023 के विधानसभा चुनावों के लिए सत्तारूढ़ भाजपा ने आदिवासियों पर अपना फोकस तेज कर दिया है, ताकि 2018 की तरह उसे बहुमत से दूर न रह जाना पड़े। यूं तो भाजपा पूरे देश में जनजाति समुदाय को अपने पाले में लाने के लिए कई तरह के आयोजन कर रही है, लेकिन मध्य प्रदेश में सबसे अधिक करीब 21.1 फीसदी आबादी के चलते उसकी विशेष अहमियत है, जिनका रुझान ज्यादातर कांग्रेस की ओर रहा है। सो, आदिवासियों पर डोरे डालने की कोशिशें भाजपा के शिखर नेतृत्व की ओर से जारी हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मन की बात कार्यक्रम में भील जनजाति की प्राचीन पद्धति हलमा की तारीफ करते हैं। उसके कुछ दिन पहले गृह मंत्री अमित शाह भोपाल में आदिवासियों के विशाल सम्मेलन में शामिल हुए। पिछले वर्ष नवंबर में बिरसा मुंडा की जयंती पर विशाल जनजातीय सम्मेलन हो चुका है, जिसमें खुद प्रधानमंत्री मोदी शामिल हुए थे। केंद्र सरकार ने बिरसा मुंडा के जयंती दिवस (15 नवंबर) को जनजाति गौरव दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की थी। इन विशाल आयोजनों के अलावा राज्य में जिला स्तर पर लगातार आयोजन का सिलसिला चल रहा है। राज्य सरकार ने आदिवासी क्रांतिकारी टंट्या भील के बलिदान दिवस पर 4 दिसंबर को पाताल पानी (महू) में बड़ा आयोजन किया था। दरअसल आजादी के बाद से लगातार आदिवासी वोट कांग्रेस के परंपरागत वोट बैंक के रूप में माना जाता रहा है। मध्य प्रदेश में तो कांग्रेस के जनाधार में उनका बड़ा योगदान है। राज्य में 2018 में कांग्रेस की सरकार बनाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। इसी वोट बैंक में अब भाजपा सेंध लगाने में जुटी हुई है। आदिवासी बहुल इलाके में 84 विधानसभा क्षेत्र हैं। 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा उनमें 34 सीट ही जीत पाई थी, जबकि 2013 में उसे 59 सीटों पर जीत मिली थी। यानी 2018 में पार्टी को 25 सीटों का नुकसान हुआ था। इससे भी बढक़र यह कि जिन सीटों पर आदिवासी जीत और हार तय करते हैं, उनमें भाजपा सिर्फ 16 सीटें ही जीत पाई। यानी 2013 की तुलना में 18 सीटें कम। हालांकि भाजपा का आदिवासी अभियान केवल मध्य प्रदेश तक सीमित न होकर देश भर में चलाया जा रहा है। भाजपा का प्रयास है कि आदिवासियों को सभी राज्यों में अपने साथ जोड़ा जाए। ज्यादातर राज्यों में आदिवासी कांग्रेस को ही वोट करते रहे है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लंबे समय से उनके बीच काम करता रहा है। संघ की कोशिश यह रही है कि उन्हें हिंदू धर्म की ओर लाया जाए और बाकी धर्मों में उनका धर्मांतरण न होने पाए। आदिवासी भाजपा के साथ आते हैं तो मध्य प्रदेश में भाजपा की वोट हिस्सेदारी पचास फीसदी तक पहुंच सकती है। पिछले चुनाव में हार के बावजूद भाजपा को 42 फीसदी वोट मिले थे, जो कांग्रेस से ज्यादा थे।
यही वजह है कि राज्य सरकार ने आदिवासियों के लिए कई योजनाओं की शुरुआत की है। जनजातीय समाज की शिक्षा, स्वास्थ्य, आजीविका और उनके अधिकारों के लिए पंचायत एक्सटेंशन टु शेड्यूल एरिया यानी पेसा एक्ट लागू की है। इसके अंतर्गत पेसा ग्राम सभाओं का गठन होगा, जो खुद अपने लिए योजनाएं बनाएंगी। राशन आपके द्वार योजना के तहत घर-घर राशन पहुंचाया जाएगा। यही नहीं, जनजातीय समाज में व्याप्त सिकल सेल एनीमिया के उन्मूलन के लिए अभियान चलाया गया है। इस समाज के बच्चों के लिए जेईई तथा नीट परीक्षाओं के लिए फाउंडेशन कोर्स और स्मार्ट क्लास शुरू करने की घोषणा की गई है। उधर, कांग्रेस ने अपना वोट बैंक बचाने के लिए आदिवासियों से सीधे संवाद का कार्यक्रम शुरू किया है। राज्य में कांग्रेस प्रवक्ता भूपेंद्र गुप्ता कहते हैं, कांग्रेस ने हमेशा ही आदिवासियों के विकास और उनकी मूल संस्कृति को बचाने के लिए काम किया है। आज भाजपा सरकार जिस पेसा एक्ट को प्रभावी बनाने की बात कर रही है, वह कानून भी कांग्रेस सरकार बनाया और अमल किया है। भाजपा केवल भ्रम फैला रही है। पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ का कहना है कि शिवराज सिंह चौहान को वर्षों बाद आदिवासी याद आ रहे हैं। मुख्यमंत्री अपने शासन काल में आदिवासियों के लिए किए गए कामकाज पर श्वेत पत्र जारी करें। लेकिन भाजपा प्रवक्ता रजनीश अग्रवाल कहते हैं, भाजपा हमेशा से सभी वर्गो को समान महत्व देती है। तुष्टीकरण की राजनीति तो कांग्रेस करती रही है। राजनीति के जानकारों का मानना है कि आदिवासियों में जनाधार बढ़ाने के भाजपा के अभियान का असर 2023 के चुनावों में देखने को मिल सकता है।