
– निर्मल उपाध्याय
जहां स्याह रात चले
क्यों बबूलों के तले,
गरीब का बसंत मिले।।
बता सुकून की खातिर,
उम्मीद किस ठौर पले,
मुझे वो सरकार बता,
जहां सियासत ना खले,
चल ले चलें सत्याग्रह,
जहां स्याह रात चले ।।
भोर सी यादें देखीं,
सांझ को जब दीप जले,
रूहों का तकाजा है,
सत्य चांदनी में धुले।।
भोर तुम बिंदिया होकर,
आना जब साँझ ढले।।
पता नहीं कब दृष्टि में,
ईमान का द्वार खुले।।
स्पंदन सुगन्धों का ही,
गीतों में फूले फले।।
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कहीं पनाह नहीं
खौफ में कहीं गुनाह नहीं,
शराफतों को पनाह नहीं।।
इन्सानियत तजुर्बा तेरा,
क्यों फर्ज का गवाह नहीं।।
कुछ रंग भी भरो फिर देखो,
जिÞन्दगी सफेद-स्याह नहीं।।
जिÞन्दगी सुविधाओं के लिए,
सदमों की गुजरगाह नहीं।।
कभी था संस्कार धर्म का,
अब संविदा है विवाह नहीं।।
कहाँ दिल परछांई ढूँढे,
जिÞन्दगी ही हमराह नहीं।।
याद के भुतहा खंडहर,
सलामत हैं तबाह नहीं।।
गीत में तेरे सब है, बस,
आदमीयत की थाह नहीं।।
जिÞन्दगी जिÞन्दा नजरिया है,
वक्त की मर्ज़ी,सलाह नहीं।।
आस्थाओं की नावों पर,
सभी हैं बस मल्लाह नहीं।।
फर्ज से बच,मगर ध्यान रख,
किस्मत आरामगाह नहीं।।
दिखता है आदमी लेकिन,
आदमीयत की चाह नहीं।।