‘सिने झरोखा’ और ‘सिने सरोकार’ को ‘माधुरी’ के पूर्व सम्पादक ने सराहा

  • समीक्षा
समीक्षा

लेखक, पत्रकार और फिल्म समीक्षक विनोद नागर के हाल में प्रकाशित छ: खण्डों वाले रचना समग्र की सिनेमा पर केन्द्रित दो पुस्तकों- ‘सिने झरोखा’ और ‘सिने सरोकार’ को ‘माधुरी’ के पूर्व सम्पादक विनोद तिवारी की सराहना मिली है। श्री नागर ने अपनी इन कृतियों को मालवांचल के दो समकालीन शिखर फिल्म समीक्षकों (स्व.) श्रीराम ताम्रकर और (स्व.) जयप्रकाश चौकसे सहित अपने जमाने की प्रतिष्ठित हिन्दी फिल्म पत्रिका ‘माधुरी’ के मूर्धन्य एवं यशस्वी सम्पादक (स्व.) अरविन्द कुमार की पुण्य स्मृति को समर्पित किया है।
ज्ञानमुद्रा पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित इन पुस्तकों की प्रस्तावना व भूमिका मुम्बई और दिल्ली के ख्यात फिल्म समीक्षकों अजय ब्रह्मात्मज और प्रदीप सरदाना के अलावा सुपरिचित फिल्म अभिनेता राजीव वर्मा और फिल्म निर्देशक रूमी जाफरी ने लिखी है।
इन पुस्तकों में श्री नागर के पिछले पचास सालों में फिल्मों पर लिखे पचास चुनिंदा आलेखों के अलावा सुप्रसिद्ध फिल्मकार हृषिकेश मुखर्जी तथा गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी और वि_लभाई पटेल से हुई बातचीत, 1976 में मांडू में गुलजार निर्देशित फिल्म ‘किनारा’ की शूटिंग रिपोर्ट व 1982-83 में दैनिक भास्कर में छपी फिल्म समीक्षाओं सहित हिन्दी फिल्मों की विकास यात्रा से रूबरू कराने वाली दिलचस्प सामग्री संजोई गई है।
समकालीन सिनेमा के कोलाज और सिनेमा के सामाजिक सरोकारों से रूबरू कराती इन किताबों को लेकर ‘माधुरी’ के पूर्व सम्पादक विनोद तिवारी ने अपनी प्रतिक्रिया में लिखा है-
प्रिय नागर जी, आपकी दोनों कृतियां, ‘सिने झरोखा और ‘सिने सरोकार’ समय पर मिल गईं थीं। मुझे याद रखने और पुस्तकें भेंट करने के लिए धन्यवाद।
इन्हें देख लेने के बाद इस उक्ति पर विश्वास बढ़ गया कि अतीत बड़ा सुहावना होता है जबकि भविष्य डराता है। अतीत की बातों को कुछ लोग भुला देना उचित समझते हैं और सिर्फ भविष्य की सोचते हैं। बहुत से मनीषी इसे उचित मानते हैं लेकिन लेखक, पत्रकार, समीक्षक के रूप में आपने साबित कर दिया है कि अगर अतीत के सुनहरे कामों को पुस्तक रूप में संजो कर, साज संवार के साथ प्रकाशित करवा सकने का बीड़ा उठाने की लगन हो तो ऐसा कथाक्रम प्रस्तुत किया जा सकता है, जो गुजरे समय की यादों की फिल्म को सदा रंगीन बनाए रख सकने के साथ साथ भविष्य में और अधिक रचनात्मक अभिरुचि को प्रोत्साहित करने में प्रकाश स्तंभ का काम कर सके। आपकी पुस्तकों का अवलोकन करने पर यही पाया। दोनों ही किताबें फिल्म प्रेमियों के लिए ऐसी स्तरीय सामग्री उपलब्ध कराती हैं, जो एक ओर अतीत से जुड़ी है तो दूसरी ओर सिनेकला की बारीकियों से भी परिचित कराती चलती है। आपकी फिल्म समीक्षाओं में यह बात विशेष रूप से परिलक्षित होती है, जबकि अनेक नामी रहे समीक्षक भी समीक्षा की मूल भावना तक से अपरिचित नजर आते हैं।
आपने अपने प्रकाशित लेखों, फिल्म समीक्षाओं, साक्षात्कारों को इन पुस्तकों में संजो कर प्रस्तुत करने के बारे में पारिवारिक सहयोग की जो बात साझा की है, वह विशेष अनुकरणीय है। मैंने यह देखा है कि पत्रकारों के पास अपने बेहतरीन रिपोर्टों और आर्टिकल्स की कटिंग्स जमा होती जाती हैं। धीरे धीरे यह सामग्री बढ़ जाती है। उसे सहेजने को घर में जगह कम पडऩे लगती है। नई जनरेशन आने के साथ इनका वह महत्व नहीं आंका जाता जिस चाव के साथ उसे संग्रहीत किया गया था। थोड़ा समय और गुजरने के बाद वह ‘व्यर्थ का शौक’ श्रेणी में आ जाती है। बहुत सक्रिय न रह गए अनेक पत्रकार इस दौर से गुजर कर मायूसी झेल चुके हैं। आपके परिवार ने यह स्थिति आने नहीं दी, इसके लिए उन्हें साधुवाद।
अपने रचनात्मक परिश्रम को छ: खंडों में समेट कर आपने जो राह बनाई है वह भविष्य में भी आपको सक्रिय और सृजनशील बनाए रखेगी इसका मुझे विश्वास है।
मेरी ओर से बधाई।

Related Articles