- हरीश फतेह चंदानी

मैडम को पसंद नहीं महिलाएं
प्रदेश के आदिवासी बहुल जिले में पदस्थ एक महिला आईपीएस को न तो अपने ऊपर और न ही अपने नीचे कोई महिला अधिकारी पसंद है। अगर कोई पदस्थ होती हैं तो मैडम की उनसे ठन जाती है। इस समय मैडम की अपने वरिष्ठ अफसर से ठनी हुई है। एक महिला अफसर के पास जोन की कमान है तो दूसरी आदिवासी बहुल जिले की पुलिस मुखिया हैं। दोनों के बीच लड़ाई की वजह क्या है, इसका कोई पुख्ता सबूत तो नहीं है, लेकिन माना जा रहा है कि आदेश-निर्देश को लेकर यह लड़ाई शुरू हुई होगी। यहां यह बता दें कि जिले की कमान संभालने वाली आईपीएस अधिकारी काफी तेज तर्रार मानी जाती हैं। पारिवारिक पृष्ठभूमि प्रशासनिक होने के कारण उनमें पहले से ही अकड़ रही है। सूत्र बताते हैं कि जबसे वे भारतीय पुलिस सेवा में चयनित हुई हैं, तभी से उनका रुख और बदल गया है। आलम यह है कि वे अपने पूर्ववर्ती साथियों के साथ भी द्वेष का भाव रखती हैं। ऐसे में यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि मैडम अपने वरिष्ठ अफसरों को कितना सम्मान देती होंगी।
बूंद-बूंद से भर रहा घड़ा
यह प्रसिद्ध लोकोक्ति इन दिनों मप्र के सरकारी विभागों में चर्चा का विषय बनी हुई है। दरअसल, कई अधिकारी-कर्मचारी उपरोक्त लोकोक्ति की तरह छोटी-छोटी कमाई करके अपना खजाना तो भर रहे हैं, वहीं उसी तर्ज पर उनके पाप का घड़ा भी भर रहा है। लोकायुक्त और ईओडब्ल्यू की लगातार हो रही कार्रवाईयों में यह साबित हो रहा है। इस बीच राजधानी में पदस्थ कुछ बाबूओं की रईसी के पर्चे जांच एजेंसियों के पास पहुंचे हैं। ये बाबू रेत और परिवहन के दफ्तर में सालों से तैनात हैं। आठ में से मात्र दो घंटे की नौकरी करने वाली परिवहन विभाग में पदस्थ एक महिला बाबू अफसरों सहित अपने स्टाफ की नजर में हैं। उसके पीछे बड़ा कारण यह है कि बाबू की तन्ख्वाह हजारों में है और वे हर महीने तकरीबन एक लाख रुपए विभिन्न बचत खातों में जमा करा रही हैं। ऐसे ही छोटी कमाई और बड़ी बचत करने वाले कई बाबूओं की बात अब सार्वजनिक हो चली है। कुछ बाबू तो दस्तावेजों को दाएं-बाएं करने में लगे हैं पर इनके कई चहेतों ने पहले से ही उनके कारनामों के सबूत जुटाकर रखे हैं।
अव्वल आने दाम और आम चाहिए
यह जरूरी नहीं है कि आपके पास योग्यता हो और काम भी आता है तो सब कुछ मिल जाएगा। यदि कुछ चाहिए तो हमें काम के साथ-साथ दाम और आम, दोनों की जरूरत होती है। यह दो विश्वविद्यालयों की तथाकथा है। दरअसल हाल ही में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने देशभर के कृषि और वेटरनरी विश्वविद्यालयों की रैंकिंग जारी की। इसमें प्रदेश के दो कृषि विवि का स्थान ऊपर जाने के बजाए नीचे आ गया। जानकारों ने इसकी हकीकत बताई तो पता चला कि जवाहरलाल नेहरू कृषि विवि के पास इन दिनों पर्याप्त बजट ही नहीं है और काम करने वाले लोग भी नहीं हैं। दोनों की ही कमी है। यह हालात ग्वालियर कृषि विवि में ही है। दोनों विवि ने इन कमियों को दूर करने के लिए भोपाल से दिल्ली तक कई चक्कर लगाए, लेकिन इतनी मेहनत करने के बाद भी उन्हें परिणाम शून्य ही मिला है। यही वजह है कि इस बार कृषि विवि की रैकिंग में वे बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाए।
नेताओं के अरमान पड़े ठंडे
चुनाव कोई भी हो नेताओं के लिए किसी महापर्व से कम नहीं होते। इसलिए जब भी चुनावी मौसम आता है नेता सक्रिय हो जाते हैं। प्रदेश में नगरीय निकाय चुनाव की आहट नेताओं में पार्टी प्रेम का रंग चढ़ाती और घटाती रही है। ऐसा ही इन दिनों देखने को मिल रहा है। कुछ समय पहले निकाय चुनाव की तैयारी देख सत्ताधारी दल से जुड़े एक डॉक्टर और एक शिक्षक का पार्टी प्रेम ऐसा बढ़ा कि बैनर-पोस्टर तक लगवा बैठे। सार्वजनिक किया कि वे अगली नगर सरकार को संभालने में पूरी तरह से सक्षम हैं। इंटरनेट मीडिया पर ग्रुप बनवा लिए। कुर्सी की चाहत ने ऐसा जोर मारा कि डाक्टर साहब ने मुफ्त इलाज और मासाब ने शिक्षा तक सस्ती कर दी। ऐसा ही मुख्य विपक्षी दल से जुड़े एक युवा तुर्क ने किया। यह नेताजी तो इतने आगे निकले की अपने आका के कहने पर जनसंपर्क तक शुरू कर दिया था। घर-घर जाकर स्पष्ट संदेश दिया कि वे ही अगले दावेदार हैं। चुनाव नजदीक नहीं देख दोनों ही दलों के नेताओं के अरमान ठंडे हो चले हैं।
दादा, चाचा-चाची का बकाया बिल
पंचायत चुनाव से बिजली कंपनी की चांदी हो गई है। जिला पंचायत, जनपद सदस्य व सरपंच का चुनाव लड़ने के लिए बिजली कंपनी का नो ड्यूज भी जमा करना है, ताकि स्पष्ट हो सके उनके ऊपर कोई बिल बकाया नहीं है। यह नो ड्यूज लेने चुनाव उम्मीदवार कंपनी के कार्यालयों में पहुंच रहे हैं। बकाया बिल जमा होने की स्थिति देखते हुए कंपनी द्वारा चुनाव के उम्मीदवारों को उनके दादा, माता-पिता, चाचा-चाची व भाई के बकाया बिल भी बताए जा रहे हैं। इसके चलते कार्यालयों में झगड़े की स्थिति भी बन रही है। गौरतलब है कि प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकतर बिजली बिल बकाया हैं। यह बकाया कृषि पंप व घरेलू उपभोक्ताओं पर है। ग्रामीण क्षेत्रों में बिल वसूलना काफी मुश्किल है, लोगों में बिल भरने की प्रवृत्ति नहीं है। इस कारण बकाया बढ़ता जा रहा है। वर्तमान में बकाया वसूलने के लिए अधिकारियों के लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं। लाइन स्टाफ को भी वसूली के लक्ष्य निर्धारित किए हैं। पंचायत चुनाव की घोषणा हुई और नामांकन भरने की प्रक्रिया शुरू हुई तो लोग कंपनी के कार्यालय में पहुंचने लगे। बकाए का नो ड्यूज लेने के लिए आवेदन करने लगे। लाइन स्टाफ ने भी परिवारों के बकाए की कुंडली तैयार कर ली है। नो ड्यूज लेने वाले के परिवार के भी बकाए बताए जाने लगे हैं।
जंगल के कानून पर डाका
वन विभाग की कार्यप्रणाली भी गजब की है। वह वन्य प्राणियों को सुरक्षा मुहैया कराने में तो पूरी तरह से नाकाम है। उधर, रिहायशी क्षेत्रों में पकड़े जाने वाले वन्य प्राणियों के साथ अधिकारियों का व्यवहार नियम-निर्देशों के खिलाफ है। विभागीय अधिकारियों की हरकतें, वाइल्डलाइफ संरक्षण अधिनियम की लक्ष्मण रेखा पार करने वाली कही जाएंगी। विभाग की तरफ से अधिनियम की धज्जियां उड़ाने वाला वाकया जबलपुर इलाके में भटककर आए हाथी के साथ पेश आया। विभाग उसे पकड़कऱ वापस वन क्षेत्र में छोड़ने के बजाय कब्जे में लेकर पर्यटकों को भ्रमण कराने के लिए प्रशिक्षित करवा रहा है। इससे पहले भी हाथियों को उत्पाती बताकर इसी तरह नेशनल पार्कों में काम पर लगा दिया गया है। विभाग के इस गैरजिम्मेदाराना रवैए के खिलाफ वन्य प्राणी प्रेमियों में भारी आक्रोश है। उन्होंने विभाग के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने नोटिस भेजकर जवाब-तलब किया है। उन्होंने अखिल भारतीय सर्विस के अधिकारियों के खिलाफ वैधानिक कार्रवाई के लिए पर्सनल ट्रेनिंग डिपार्टमेंट से अनुमति भी मांगी है।