बा खबर असरदार/ये दोस्ताना कमाल का

  • हरीश फतेह चंदानी
दोस्ताना

ये दोस्ताना कमाल का
अक्सर कहा जाता है कि एक सच्चा और अच्छा दोस्त मिल जाए तो किस्मत ही बदल जाती है। इन दिनों प्रदेश की राजनीतिक वीथिका में एक ऐसे ही दोस्ताना की चर्चा खूब हो रही है। यह दोस्ताना दो नेत्रियों का है। इनकी दोस्ती कॉलेज के समय से है, जो अब भी जारी है। एक नेत्री आज भले ही राजनीति में सक्रिय नहीं हैं, लेकिन वह भाजपा के सर्वोच्च राजनेता की पत्नी हैं। जबकि दूसरी उसी पार्टी में कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय हैं। हालांकि अब उन्हें एक निगम मंडल में अध्यक्षी मिल गई है। उन्हें यह अध्यक्षी अपनी सहेली की वजह से मिली है। निगम मंडल में पहुंची अब इस नेत्री के अरमानों को पंख लग गए हैं। उनकी तमन्ना विधायकी चुनाव लड़ने की है। तैयारी भी खूब करती हैं लेकिन किस्मत साथ नहीं देती। उनकी समस्या भी ये है कि मायका जबलपुर और ससुराल शहडोल है। ऐसे में वो दो नाव में सवार होती हैं। वक्त के हिसाब से खुद को उस स्थान से जोड़ लेती हैं। अभी नियुक्ति में जबलपुर में उनकी दोस्ती बड़ी काम आई। कहते हैं राजनीति में कदम रखवाने में पक्की सहेली का खूब सहयोग रहा। संयोग था कि सहेली भी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के अधिवेशन में शामिल होने आई। ऐसे में दो दिन साथ रहकर पुरानी छात्र राजनीति की यादें ताजा की। अब जीजाजी राष्ट्रीय नेतृत्व में है ऐसे में दोस्ती के दम पर चुनावी सफर को आसान बनाने की कवायद तेज हो गई है। नजर जबलपुर के उत्तर विधानसभा में गड़ी हुई है। देखें यहां दोस्ताना क्या गुल खिलाता है।

कौन बांधेगा घंटी…?
महाकौशल की राजनीति में इन दिनों भाजपा नेता अजब असमंजस के दौर से गुजर रहे हैं। इसकी वजह यह है कि एक तो सत्ता में उनकी भागीदारी कम है, दूसरी वजह है जबलपुर में स्थित शक्ति भवन का विखंडन। दरअसल, बिजली कंपनी के मुख्यालय शक्ति भवन में फिर से पावर मैनेजमेंट कंपनी के दफ्तरों को शुरू करने की मांग तेज हो रही है। इसके लिए जबलपुर जिले के भाजपा के विधायक लामबंद हैं। लेकिन कोई भी विधायक खुलकर सामने नहीं आ रहा है। आलम यह है कि संस्कारधानी के सांसद से मीटिंग के बाद भी समाधान निकलता नजर नहीं आ रहा है। सूत्र बताते हैं कि संस्कारधानी का कोई भी भाजपा विधायक बिल्ली के गले में घंटी बांधने (सरकार तक अपना विरोध जताने) की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। ऐसे में सबकी नजर पूर्व मंत्री और वर्तमान में जिले की एक विधानसभा सीट से विधायक रहे माननीय पर है। कुछ विधायकों ने उनके पास इस संदर्भ में संदेश भी भिजवाया है तो उन्होंने ढांढस बंधाया है कि घबराने की जरूरत नहीं है, सरकार अभी व्यस्त हैं। जल्द ही मैं इसकी लड़ाई शुरू करूंगा। गौरतलब है कि उक्त माननीय वर्तमान सरकार के खिलाफ लगातार आवाज बुलंद किए हुए हैं।  

…और लाठी भी नहीं टूटी
यह कहावत तो आपने सुनी ही होगी कि सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी। इस कहावत को गत दिनों 1997 बैच के आईपीएस अधिकारी ने चरितार्थ कर दिखाया। दरअसल, 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण को लेकर राजधानी में ओबीसी महासभा ने बड़े स्तर पर प्रदर्शन और सीएम हाउस के घेराव का कार्यक्रम रखा था। कोरोना महामारी के बीच अनियंत्रित भीड़ को नियंत्रित करना पुलिस के लिए बड़ी चुनौती बनने वाला था। भोपाल में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू होने के बाद पहली बार कोई बड़ा आंदोलन होने जा रहा था। ऐसे में सीपी की भी अग्निपरीक्षा होनी थी। लेकिन अपने अब तक के अनुभवों का लाभ उठाते हुए भोपाल के सीपी 1997 बैच के आईपीएस अधिकारी मकरंद देउस्कर ने आंदोलन को रोकने के लिए ऐसा प्लान बनाया कि आंदोलन मोबाइल फोन तक ही सिमटकर रह गया। राजधानी में न नारे लगे, न हंगामे हुए और एक बड़ा आंदोलन बिना तामझाम के समाप्त हो गया। सूत्र बताते हैं कि सीपी साहब की इस सूझबूझ की राजनीतिक और प्रशासनिक वीथिका में खूब सराहना हो रही है। सरकार को भी इस बात से राहत मिली है कि पुलिस कमिश्नर प्रणाली का प्रयोग सफल हो रहा है।

सैय्या भये कोतवाल…
कानून व्यवस्था को ताक पर रखने वाली यह कहावत तो आपने सुनी ही होगी कि सैय्या भये कोतवाल… तो अब डर काह ेका। प्रदेश में इस समय कुछ इसी तर्ज पर एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के करीबी मातहत साहब के पथरीले खेत में मिट्टी भर रहे हैं। दरअसल, 1983 बैच के आईपीएस अधिकारी ने सीहोर जिले की एक तहसील में जमीन खरीदी है। बताया जाता है कि उक्त जमीन पथरीली है। ऐसे में किसी ने साहब को सलाह दी है कि वे उस जमीन पर मिट्टी भरवा दें तो जमीन उपजाऊ हो जाएगी। फिर क्या था, साहब ने अपने रसूख का उपयोग करते हुए उस जमीन पर मिट्टी भरवानी शुरू कर दी है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि साहब के निजी खेत पर सरकारी वाहनों से मिट्टी डलवाई जा रही है। ये वाहन किसकी अनुमति से ऐसा कर रहे हैं, यह तो कोई बताने को तैयार नहीं है, लेकिन एक बात तो साफ है कि साहब का रसूख इतना बड़ा है कि वे स्वयं के आदेश पर भी ऐसा करवा सकते हैं। बताया जाता है कि इसको लेकर कुछ कनिष्ठ अधिकारियों ने आपत्ति उठाई तो साहब के मातहतों ने उन्हें हिदायत दे डाली कि तुम्हें मालूम नहीं है, साहब के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है। अब प्रदेश की प्रशासनिक वीथिका में चर्चा है कि वर्तमान समय में साहब की तूती बोल रही है, इसलिए कोई उनसे पंगा लेने को तैयार नहीं है।

…कांग्रेस का कोई नहीं
मप्र कांग्रेस के बारे में कहा जाता है कि यहां जितने नेता हैं पार्टी में उतने गुट हैं। चाहे पीसीसी हो, डीसीसी हो या अन्य संगठन। कांग्रेस में सबसे अधिक दुविधा यही है कि यहां बड़े नेताओं की व्यक्ति पूजा है, वह भी कांग्रेस के नाम पर। कांग्रेस सबकी है लेकिन कांग्रेस का कोई नहीं, वे सब किसी न किसी बड़े नेता के गुट को अंगीकार कर रहे हैं। खैर बाजी तो बिछ ही गई है, बस चाल चलना बाकी है। प्रदेश में महिला कांग्रेस के पद पर अर्चना जायसवाल के आने के बाद पूर्व प्रदेश महिला कांग्रेस अध्यक्ष के गुट की नेत्रियां मौन होकर काम कर रही हैं। उन्हें तो अब यही लगता है कि न जाने कब कौन सा फरमान आ जाए कि नई शहर अध्यक्ष फलां नेत्री को बनाया जाता है। मैदान में वैसे भी नाम सीमित हैं क्योंकि, बात तो वही है कि बिना गुटबाजी के संभव ही नहीं। एक मौका मिला था कि सभी नेत्रियां गुट से बाहर निकलकर नए नेतृत्व के साथ जातीं लेकिन कुछ ऐसा लग ही नहीं रहा। हालांकि महिला कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष महिलाओं को सक्रिय रखने के लिए नित्य नए कार्यक्रम कर रही हैं, लेकिन उन्हें पूर्व नेत्रियों का समर्थन नहीं मिल पा रहा है। इसकी वजह यह है कि कोई न कोई किसी न किसी गुट से बंधा हुआ है। जब उनके नेता घर पर बैठे हैं तो वे सक्रिय होने में दिलचस्पी नहीं ले रही हैं। ऐसे में कांग्रेस का क्या होगा यह तो भगवान ही जाने।

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