इस शहर में किससे मिलें, हमसे तो छूटी महफ़िलें

  • राकेश श्रीमाल
 महफ़िलें

अपने पुराने शहर को याद करना, यूं तो अपने स्तर पर भावुक होना ही होता है, लेकिन यहां मसला कुछ और ही है। वैसे तो मसले बहुत सारे हैं। फिर भी इतना तो तय है कि इस कॉलम की शुरूआत करते हुए थोड़ी झिझक, कुछ लिहाज और ढ़ेर सारी स्मृतियां हैं, जिन्हें या तो अपने बेहद लापरवाह जीवन में मैंने जिया है या जिन्हें साकार या मूर्त जामा पहनाने में मैंने सचमुच ही कोताई बरती है। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि इंदौर मेरे लिए केवल एक शहर भर नहीं है, अलबत्ता इससे अधिक वह मेरे अपने जीवन में, भले ही मैं कहीं भी रहूं, मैं उसे अपने ही हमसाये की तरह हर पल जीने की कोशिश करता हूं। अंतत: उस शहर की स्मृतियों को बचाए रखना मेरे लिए किसी दायित्व-बोध से कम नहीं है। तो चलते हैं इस सफर में, जहां इंदौर केवल अपनी भौगोलिक सीमाओं में ही नहीं बसता, वह तो देश-विदेश में जहां जहां भी इंदौरी बसते हैं, वहां वहां वह शिराओं में धमनियों की मानिंद अपनी उपस्थिति को बनाए और बचाए रखता है। निश्चित ही इंदौर की स्मृतियां मेरे लिए पहले प्रेम की तरह ही रोमांचक, नास्टेल्जिया में ले जाने वाली और गाहे-बगाहे उसे टटोलने और किंचित छूने के लिए अक्सर बेताब रहती हैं। इसलिए इस कदर लिखने को, इस कॉलम की रूह समझने का मेरा विनम्र निवेदन है। इस नए शुरू होने वाले कॉलम की पूर्व-पीठिका की तरह ही मैं यह लिख रहा हूं। पता नहीं, इसे लिखते हुए मैं कितना अपने-आप को सहेज कर रख पाऊंगा। इस कॉलम को नियमित ढंग से लिखना मेरे लिए अपने ही अतीत को एकतरफा प्रेम करने जैसा भी हो सकता है और इसके परिणामस्वरूप किसी कड़वे सच की तर्ज पर शायद कुछ लोग नाराज भी हो सकते हैं पर एक नए किस्म की अर्थहीन बहस की दृष्टि के मद्देनजर, इतना वादा तो किया ही जा सकता है कि मैं इन जैसी असंख्य कमजोरियों को अपने लिखने में बहुत धीमी रफ्तार से लाता रहूंगा।
जमाल अहसानी ने एक शेर लिखा है- ‘तमाम रात शहर नहाया था बारिश में, वो रंग उतर ही गए जो उतरने वाले थे।’  यकीन मानिए कि मैं उन उतरे हुए रंगों के बारे में भी लिखूंगा, या उनके बारे में भी, जिन्हें आज के इंदौर की युवा पीढ़ी  लगभग भूल सी गई है। उनका यह भूलना इस समय की दौड़ में शामिल होने के लिए प्राय: मुआफ किया जाता रहा है। उस मजबूरन मुआफी को यह कॉलम सहज बना सकें, इसकी चेष्टा रहेगी। अंतत: इंदौर की स्मृति  मात्र पोहे-जलेबी अथवा सैफी होटल में रात के तीसरे पहर में खाते हुए नहीं की जा सकती। एक अदृश्य-अव्यक्त विचार-व्यवहार इसके इर्द-गिर्द हमेशा बना रहता है। परवीन शाकिर जब यह लिखती हैं- ‘मैं फूल चुनती रही और मुझे खबर न हुई / वो शख्स आ के मेरे शहर से चला भी गया।’ तब वे शहर को एक ऐसे आत्मीय परिवेश में अपनी स्मृति में लाती हैं, जो अपना भी है और पराया भी। इस अपने-पराए होने में जिस किस्म का लुत्फ छुपा रहता है, वह सब शायद मैं इस कॉलम में दर्ज कर पाऊं।
तैमूर हसन लिखते हैं- ‘मुझ को कहानियां न सुना, शहर को बचा / बातों में मेरा दिल न लुभा, शहर को बचा।’ अब भला किस्से-कहानी के बिना शहर को कैसे याद किया जा सकता है? समय की घड़ी को जब पीछे किया जाता है, तब वहाँ अनगिनत किस्सों की झड़ियां, मानों हमारी ही राह जोत रही होती है। जाहिर है कि इस कॉलम में अतिरिक्त छोंक के साथ कुछ किस्से-कहानियों भी होंगी और थोड़ी बहुत तल्ख हकीकत भी। हर शहर का अपना एक अदद आलम, मंजर, हालात और सन्नाटा होता है, उसकी अपनी तन्हाई और एकाकीपन उसके साथ होता है। उस शहर के अपने गुलमोहर होते हैं, जो वक़्त-बेवक़्त खिलते और स्मृतियों में मुस्कराते रहते हैं। इंदौर का भी अपना नभ-जल-थल है। वहां भी क्लासिकी मौसिकी अपने उफान पर रही है। उसे भी मुम्बई के छोटे भाई का दर्जा मिला है। यहां भी कभी रतन खत्री का मटका खुलता रहा है। मकबूल फिदा हुसैन कभी इसी शहर के पिपलियापाला में अपनी रेखाओं का रियाज करते थे। छावनी के पारसी मोहल्ले में कभी दुमंजिले मकान में मैं भी रहा करता था। इंदौर के मधुमिलन टॉकीज में अक्सर हॉलीवुड की फिल्में देखते हुए न मालूम किस दुनिया की सैर हो जाया करती थी। मुझे नहीं पता कि इंदौर किस बलबूते पर वर्षों से सबसे खूबसूरत शहर का खिताब पाता रहा है। मेरे लिए इंदौर की सुंदरता कुछ अलग ही मापदंडों पर मेरी स्मृति में बसी हुई है। वहीं से कुछ-कुछ चोरी करके मैं यह कॉलम लिखता रहूंगा।
इसी इंदौर के मार्तण्ड चौक में कभी वसंत पोतदार रहा करते थे। माणिक बाग में शाम को टहलते हुए बंडू भैया चोघुले दिख जाया करते थे। राम बाग में कभी न मालूम किस उहापोह में तबला सीखने के लिए पंडित शरद खरगोनकर का मैं गंडाबन्ध शागिर्द बन गया था। राजेन्द्र नगर से राजबाड़ा की बस में दैनिक सफर करते हुए अपनी एक भली मित्र के चलते मुझे इंदौर फाईन आर्ट्स कॉलेज का पता-ठिकाना मिला था और मेरा जीवन एक नई दिशा में सरपट दौड़ने लगा था। वहीं उस कॉलेज में चन्दनसिंह भट्टी और देवीलाल पाटीदार की सोहबत मिली थी। भालू मोंढें के साथ मिलकर गांधी हाल के ऊपर वाले तल पर एक आर्ट गैलरी की स्थापना की थी, जिसका उद्धघाटन नारायण श्रीधर बेंद्रे ने किया था। शायद तभी हड़बड़ी में ‘द आर्ट गैलरी’ नाम से एक पत्रिका का संपादन भी किया था।
एक व्यक्ति के जीवन में उसके अपने शहर के अंतहीन किस्से रहते हैं। आज की इस बेतरह उठापटक वाली जिंदगी में, निश्चित ही इन्हें याद करना जीवन की असल जमा-पूंजी को, गर्व के साथ सहेजना होता है। मेरा प्रयास रहेगा कि इंदौर के उस अतीत को में अपने शब्दों से थोड़ा उपस्थित कर पाऊं, जिसे सम्भवतया हम भूलते जा रहे हैं। वर्ष 1731 में इस शहर में इन्द्रेश्वर मंदिर के बनने के उपरांत इंद्रपुर की स्थापना हुई। कई वर्षों बाद पेशवा बाजीराव (प्रथम) के द्वारा मराठा शासन के तहत, इसे मराठा सूबेदार मल्हार राव होलकर को दिया गया, तब इसे ‘इंदूर’ नाम मिला। बाद में ब्रिटिश राज के दौरान यह इंदौर हो गया। इसी इंदौर पर केंद्रित यह कॉलम लिखने की जहमत तो मैंने ले ली है, पता नहीं कि आपकी अपेक्षाओं पर कितना खरा उतर पाऊंगा।
-लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार हैं

Related Articles