
अवधेश बजाज कहिन
मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने अपने चौबीस महीने के कार्यकाल में एक बात बड़े महीन तरीके से साफ कर दी है।वो यह कि कम समय में भी कमाल का काम कैसे किया जा सकता है। पदभार संभालने के तुरंत बाद से उन्होंने मध्य प्रदेश के उन पक्षों पर ध्यान केंद्रित किया, जहां सुधार किए जाने की महती आवश्यकता थी और जो दुर्भाग्य से अब तक अछूत होने की हद तक अनछुए थे। मिसाल के तौर पर बुंदेलखंड से बात शुरू कर सकते हैं. यह क्षेत्र हमेशा से पानी की किल्लत का शिकार रहा है. यादव ने जहां केन-बेतवा लिंक परियोजना को गति देकर इस अंचल के आंचल में भरपूर जल की सौगात का बंदोबस्त कर दिया है, वहीँ दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, दमोह और सागर जिलों में कई सिंचाई योजनाओं को मंजूरी देकर भी उन्होंने बुंदेलखंड की प्यास बुझाने का समुचित इंतजाम कर दिखाया है। ये अकेला मामला नहीं रहा है। राज्य के खजाने की सेहत दुरुस्त करने के लिए अपने कार्यकाल के पहले साल से लेकर अब तक डॉ. यादव ने यहां निवेश के लिए अपने प्रयासों में कोई कमी नहीं छोड़ी है। जिलों से लेकर राज्य स्तर तक की इन्वेस्टर्स मीट का नतीजा यह कि आज विदेश से भी प्रचुर मात्रा में निवेश के प्रस्ताव मध्यप्रदेश की झोली में आ चुके हैं। इससे राज्य में रोजगार के बड़े अवसर मिलने का रास्ता भी साफ हो गया है।

ये और इन जैसे अनेक काम के जरिए डॉ. मोहन यादव खरामा-खरामा उस पड़ाव पर आ गए हैं, जहां से वो अति-विकसित मध्यप्रदेश के अपने सपने की मंजिल को साफ देख सकते हैं। हालांकि इस पड़ाव तक का मार्ग उनके लिए कतई निरापद नहीं रहा। अपने कार्यकाल के आरंभ से उन्होंने स्वयं के लिए प्रतिकूल अटकलों, सुरसा की तरह मुंह पसारी चुनौतियों और आम जनता की आकांक्षाओं का विशाल पहाड़ ही सामने पाया। डॉ. यादव सधे कदम और ठोस इरादों के साथ इस दिशा में आगे बढ़े। अपने कार्यकाल के शुरूआती महीनो में ही उन्होंने बिगड़ैल नौकरशाही पर अंकुश कसकर बता दिया कि वो सुशासन के लिए कमर कसे हुए हैं। सबसे बड़ी आर्थिक चुनौती के संदर्भ में निवेश की बात तो पहले की ही जा चुकी है। इसके अलावा डॉ. यादव ने तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद लाडली बहन योजना को जारी रखते हुए लोगों को यह विश्वास दिला दिया कि जन-हित में वो साहसिक कदम उठाने से जरा-भी पीछे नहीं हटेंगे। धार्मिक स्थलों से लाउडस्पीकर हटाने और खुले में मांस की बिक्री रोकने का उनका निर्णय भी लोगों की इच्छा के अनुकूल था और यह भी उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति को सामने सशक्त माध्यम बना हुआ है। यहां भोपाल में शारिक मछली के साम्राज्य सहित प्रदेश के अन्य हिस्सों में माफिया को धूल में मिलाने वाली यादव की सख्ती का जिक्र भी समीचीन है।
डॉ. मोहन यादव ने इस अवधि में अपनी कुशल संतुलनकारी नीतियों का अन्य तरीके से भी ठोस परिचय दिया है। दो वर्ष की अवधि में उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों के बीच खिंचाव जैसी कोई भी बात सामने नहीं आई है। प्रदेश के सियासी अतीत और खमीर, दोनों के लिहाज से ही यह बड़ी नायाब किस्म की बात है। इसके साथ ही भाजपा के संगठन के साथ भी डॉ. यादव पूरी कदमताल कायम रखे हुए हैं। इसे भी डॉ. यादव का सीख लेने वाला जोखिम कहा जाएगा कि उन्होंने मुख्यमंत्री के अति-व्यस्त कामकाज के बीच भी दस-दस विभागों का दायित्व पूरी कुशलता के साथ संभाल रखा है। जोखिम में चुनौती का भाव भी निहित होता है और डॉ. यादव ने दो साल पूरे होने से ठीक पहले राज्य से नक्सलवाद की चुनौती को पूरी तरह खत्म करने का साहसिक करिश्मा भी कर दिखाया है। ‘डबल इंजन’ की अवधारणा जितना लुभाती है, इसे साकार करना उतना ही कठिन होता है। लेकिन डॉ. यादव इसके अपवाद साबित हुए हैं। प्रधानमंत्री डॉ. नरेंद्र मोदी की मंशा के अनुरूप काम करने में उन्होंने कोई कसर नहीं उठा रखी है। यहां हांडी के चावल के रूप में इस बात का उदाहरण ही पर्याप्त है कि मोदी के स्वच्छ भारत वाले दृष्टिकोण के अनुरूप ही वर्ष 2025 में भोपाल देश-भर में दूसरे नंबर का स्वच्छ शहर बन गया। इसके साथ ही डॉ. यादव ने राज्य के पवित्र शहरों में शराब की बिक्री पर रोक और धार्मिक स्थलों के बीच हवाई सेवा के उपहार इस प्रदेश को दिए हैं। फिर सिंहस्थ को लेकर डॉ. यादव जिस तरह से दिन-रात एक किए हुए हैं, उसके उल्लेख के बगैर तो यह चर्चा पूरी हो ही नहीं सकती है।
यह सही है कि यादव को राज्य के सर्वांगीण विकास के लिए अभी भी कई और चुनौतियों से जूझना है, लेकिन महज दो वर्ष की अवधि में जिस जुझारूपन का उन्होंने कदम-कदम पर परिचय दिया है, वो इस आशा को बलवती करता है कि जो चुनौती के आगे ठिठक जाए, वो डॉ. मोहन यादव नहीं हैं। आखिर मामला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संस्कारों का भी तो है।
