सरकार की उदासीनता का खामियाजा भुगत रहे किसान

किसान
  • मंडी और सहकारिता चुनाव न होने से बिगड़ा खेती-किसानी का खेल

गौरव चौहान/भोपाल/बिच्छू डॉट कॉम। मंडी और सहकारिता का गठन खेती-किसानी और किसानों की सहायता और सुविधाओं के लिया किया गया है। लेकिन विडंबना यह है कि एक दशक से अधिक समय का अरसा बीत जाने के बाद भी मप्र में मंडी और सहकारिता चुनाव नहीं हो पाए हैं। जानकारों के कहना है कि सरकार की उदासीनता के कारण ऐसा हो रहा है। इसका खामियाजा किसानों को भुगतना पड़ रहा है। मंडियों में अव्यवस्था और खाद-बीज के संकट से किसानों को परेशान होना पड़ रहा है। लेकिन उनकी आवाज उठाने वाला कोई नहीं है। जानकारों का कहना है कि अगर मंडी और सहकारिता के चुनाव हुए होते तो किसानों की समस्याओं का समाधान आसानी से हो जाता।
मप्र में मंडी चुनाव 13 से तो सहकारिता के 12 साल से नहीं हुए हैं। इस कारण निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के स्थान पर कृषि मंडी और सहकारिता की पूरी व्यवस्था अफसरशाही के भरोसे है। इस समय रबी फसलों की बुवाई का सीजन चल रहा है। प्रदेश के किसान खाद संकट से जूझ रहे हैं। खाद के लिए लंबी लंबी लाइनों में लगे किसानों को पुलिस के डंडे खाने पड़ रहे हैं। कृषि मंडियों में अनाज व्यापारियों की मनमानी से किसानों को औने-पौने दामों में अनाज बेचना पड़ रहा है, लेकिन स्थानीय स्तर पर किसानों की समस्याएं सुनने वाला कोई जनप्रतिनिधि नहीं है। इसकी मुख्य वजह प्रदेश के लाखों किसानों से सीधे तौर पर जुड़े कृषि उपज मंडी समितियों और प्राथमिक कृषि साख सहकारी समितियों के चुनाव लंबे समय से टलते जाना है। मप्र किसान कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष धर्मेंद्र सिंह चौहान का कहना है कि  प्रदेश में किसानों की दुर्गति होने का सबसे मुख्य कारण सहकारिता और मंडी समितियों के चुनाव नहीं होना है। सरकार ने प्रशासक बैठाकर मंडी और सहकारिता का विकेंद्रीकरण कर दिया है। अगर सरकार वाकई किसान हितैषी है, तो जल्द से जल्द मंडी व सहकारिता के चुनाव कराए।
चुनाव कराने में सरकार की कोई रुचि नहीं
मप्र में मंडी समितियों और सहकारी समितियों के चुनाव का इंतजार एक दशक से अधिक समय से किया जा रहा है। इस दरमियान प्रदेश में तीन सरकारें बदल गईं, लेकिन मंडी व सहकारिता के चुनाव कराने में सरकार की कोई रुचि नहीं है। सरकार की इस उदासीनता का खामियाजा किसानों को भुगतना पड़ रहा है। सरकार ने सहकारिता और मंडियों की पूरी व्यवस्था अफसरशाही के भरोसे छोड़ दी है, जो किसानों की जमीनी समस्याओं से न तो वाकिफ हैं और न ही उसमें रुचि दिखा रहे हैं। सहकारिता और मंडी के चुनाव नहीं होने से न सिर्फ प्रशासनिक असंतुलन पैदा हुआ है, बल्कि ग्रामीण राजनीति में रुचि रखने वाले किसानों के लिए भी राजनीति के रास्ते बंद हो गए हैं। पहले मंडी और सहकारी समितियों के माध्यम से किसान राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाते थे। कई बड़े नेता इन्हीं मंचों से आगे बढ़े हैं, लेकिन अब यह अवसर भी समाप्त हो गया है। हालांकि मंडी और सहकारिता के चुनाव गैरदलीय आधार पर होते हैं, लेकिन इसमें भाजपा और कांग्रेस की गहरी रुचि रहती है। मंडी और सहकारिता के चुनाव कराने को लेकर हाईकोर्ट जबलपुर और ग्वालियर खंडपीड में याचिकाएं दायर की जा चुकी हैं। प्रदेश में 2012 में मंडी उपज समितियों के चुनाव हुए थे। किसान मतदाताओं एक करोड़ 37 लाख है। नियमानुसार 2017 में मंडियों के चुनाव कराए जाने थे, लेकिन पहले विधानसभा और फिर लोकसभा चुनाव का हवाला देते हुए चुनाव टाल दिए गए। सरकार ने जनवरी, 2019 में मंडी समितियों को भंग कर दिया, तब से प्रशासनिक अधिकारी मंडियों के प्रशासक बने हुए हैं। किसी भी स्थिति में इनकी अवधि दो वर्ष से अधिक नहीं रखी जा सकती है। इसको लेकर हाईकोर्ट में याचिका भी लग चुकी है।
मंडियों में किसानों का प्रतिनिधित्व पूरी तरह समाप्त
प्रदेश में कृषि उपज मंडियों की संख्या 259 है, जिनके चुनाव कराए जाने हैं। मंडी समितियों के चुनाव नहीं होने से वहां किसानों का प्रतिनिधित्व पूरी तरह समाप्त हो गया है। स्थानीय स्तर पर जो निर्वाचित मंडी बोर्ड पहले किसानों की आवाज उठाते थे, वे अब भंग हो चुके हैं। उनकी जगह अधिकारी बैठे हैं, जो केवल प्रशासनिक दृष्टिकोण से काम कर रहे हैं। मंडियों में अनाज खरीदी के दौरान पारदर्शिता नहीं है और मनमाने तरीके से भाव तय करते हैं। मंडियों में किसानों के लिए मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध नहीं है। वहीं प्रदेश में प्राथमिक कृषि साख सहकारी समितियों (पैक्स) के चुनाव आखिरी बार 2013 में हुए थे, जिनका कार्यकाल 2018 में समाप्त हुआ। नियमानुसार छह माह पहले चुनाव प्रक्रिया शुरू हो जानी चाहिए थी, लेकिन विधानसभा चुनाव और अन्य कारणों से यह लगातार टलता रहा। इस बीच वैकल्पिक व्यवस्था के तौर पर प्रशासकों की नियुक्ति की गई, लेकिन सहकारी अधिनियम के अनुसार यह व्यवस्था अधिकतम एक साल तक ही वैध थी। चुनाव न होने से असंतोष बढ़ा और हाईकोर्ट की जबलपुर व ग्वालियर खंडपीठ में कई याचिकाएं दायर हुईं। गत मार्च में महाधिवक्ता कार्यालय ने सुनवाई के दौरान सरकार को सुझाव दिया कि चुनाव जल्द कराना जरूरी है। इसके बाद राज्य सहकारी निर्वाचन प्राधिकारी ने निर्वाचन कार्यक्रम घोषित किया, लेकिन चुनाव नहीं कराए गए। प्रदेश में प्राथमिक कृषि साख सहकारी समितियों की संख्या साढ़े चार हजार से अधिक है। इनमें 50 लाख से ज्यादा किसान सदस्य हैं। सहकारी समितियों के चुनाव न होने से ग्रामीण अंचलों में सहकारिता का पूरा ढांचा चरमरा गया है। समितियों के भंग होने से किसानों को खाद, बीज और ऋण के लिए भटकना पड़ता है। भारतीय किसान संघ के प्रदेश अध्यक्ष कमल सिंह आंजना कहते हैं कि हमने मंडी और सहकारी समितियों के चुनाव कराने को लेकर तत्कालीन सीएम शिवराज सिंह चौहान को भी ज्ञापन दिया था और मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव को भी ज्ञापन दे चुके हैं। चुनाव नहीं होने से अफसरशाही और व्यापारी मनमानी कर रहे हैं। किसानों के हित में सरकार को जल्द से जल्द ये दोनों चुनाव कराने चाहिए।

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