आदिवासी तो बहाना है, निशाना कहीं और है…

आदिवासी
  • सुशील शर्मा

म ध्य प्रदेश में कांग्रेस के शासन में अपनी ही सरकार को ललकारने की कांग्रेस की कुसंस्कृति का नया संस्करण भाजपा में भी अपनी जगह बना रहा है। हद तो यह है कि इस कुसंस्कृति का झंडा बुलंद कर रहे हैं भाजपा के सबसे अनुशासित कार्यकर्ता, लंबे समय तक सत्ता में रहे पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान। जिस तरह से उन्होंने अपने विधानसभा क्षेत्र में आयोजित ‘आदिवासी पंचायत’ में हुंकार भरी, वैसा दुस्साहस अब तक भाजपा में न तो किसी मंत्री ने किया है, न किसी विधायक और सांसद ने। सत्ता पक्ष के इतने वरिष्ठ और कद्दावर नेता का अपने ही सिस्टम को खुलेआम चुनौती देना केवल राजनीतिक संदेश नहीं, बल्कि एक शक्ति प्रदर्शन भी है। 2018 में कांग्रेस की सरकार बन जाने के बाद विपक्ष में रहते हुए शिवराज सिंह चौहान ने टाइगर अभी जिंदा है का नारा देखकर जनता की लड़ाई लड़ते रहने का ऐलान किया था। पर अब उसी से मिलती जुलती गर्जना केवल गर्जना नहीं है बल्कि यह सीधी चुनौती भोपाल में बैठी सरकार को तो है ही, बल्कि दिल्ली के नीति-निर्माताओं को भी संदेश देती है। सवाल तो यही है कि अगर यही ‘हुंकार’ कोई और विधायक भरता तो भाजपा की कमजोरों के लिए शक्तिमान अनुशासन समिति अब तक नोटिस थमा चुकी होती और नेता को भोपाल मुख्यालय तलब कर लिया गया होता। परंतु यहां मामला शिवराज सिंह चौहान का है, इसलिए पार्टी के कानों में अब तक जूं नहीं रेंगी है। विडंबना यह है कि जिन आदिवासियों की पीड़ा की दुहाई आज शिवराज सिंह दे रहे हैं, उनके मुख्यमंत्री रहते इन्हीं आदिवासियों को सतपुड़ा टाइगर रिजर्व, बुरहानपुर, गुना, शिवपुरी जैसे इलाकों में कई सरकारी परियोजनाओं के नाम पर मुआवजा और स्थान देकर पुनर्वासित किया गया था। तब न तो कोई हुंकार थी, न प्रतिरोध। पर, अब वही पुनर्वास ‘आदिवासी अधिकार’ बनकर कैसे उभर रहा है। सवाल यह भी है कि यदि हर वन अभयारण्य या विकास परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण का विरोध इसी तरह किया जाएगा, तो क्या केन-बेतवा लिंक जैसी राष्ट्रीय परियोजनाएं रुक जाएंगी और क्या उनके लिए भी शिवराज सिंह चौहान इसी तरह हुंकार भरेंगे। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव के निर्देश पर वरिष्ठ और आदिवासी समाज के नेता कैबिनेट मंत्री विजय शाह मौके पर जाकर जांच कर चुके हैं। उनकी जांच में सामने आए तथ्य शिवराज की हुंकार को सवालों के घेरे में रखते हैं। मंत्री विजय शाह ने अपने सोशल मीडिया पर स्पष्ट किया था कि खिवनी अभयारण्य की स्थापना वर्ष 1955 में हुई थी। वनाधिकार अधिनियम 2006 के तहत 13 दिसंबर 2005 से पहले बसे परंपरागत वनवासियों को अभयारण्य क्षेत्र में भूमि पर पट्टे नियमानुसार दे दिए गए थे। इसके बाद किसी भी व्यक्ति के अधिकार का दावा उस क्षेत्र में शेष नहीं रहा था। शाह ने यह भी बताया कि वर्ष 2016-2017 में कुल 96 हितग्राहियों को 10 लाख रुपए प्रति परिवार के हिसाब से 9.6 करोड़ रुपए देकर विधिवत विस्थापित किया गया। 23 जून 2025 को जिन क्षेत्रों कक्ष क्रमांक 215, 209 और 203 में अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई की गई, वहां संबंधित परिवारों को एक माह पूर्व नोटिस दिया गया था। इस कार्रवाई में 29 परिवारों के 51 व्यक्ति प्रभावित हुए, जिनमें से 49 के प्रधानमंत्री आवास पहले से स्वीकृत थे और उनका स्थायी आवास खुद के राजस्व ग्राम में बन चुका है। शाह के अनुसार, कुछ अतिक्रमणकारियों द्वारा भूमि दस्तावेज प्रस्तुत न करने पर ही 14 जून 2025 को नियमानुसार बेदखली आदेश जारी किए गए थे। दरअसल, यह पूरा घटनाक्रम एक प्रतीकात्मक राजनीति है। शिवराज सिंह जानते हैं कि भाजपा के भीतर उनकी पुरानी छवि अब ‘मुख्यमंत्री पद से विदाई’ के बाद कमजोर मानी जा रही है। पर यह भी उतना ही सच है कि जब उनके ही कार्यकाल में सतपुड़ा टाइगर रिजर्व, बुरहानपुर, गुना और शिवपुरी के गांवों को योजनाओं के नाम पर उजाड़ा गया, तब न तो ऐसी पंचायत हुईं, न ऐसी हुंकारें गूंजीं। अब वही बात जब उनकी सत्ता से दूरी बढऩे लगी है तो ‘आदिवासी अधिकार’ स्वयं को स्थापित करने का एक नया राजनीतिक हथियार बन गया है। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव के लिए यह स्थिति दोहरी चुनौती है-एक ओर उनके पूर्व मुख्यमंत्री की सार्वजनिक चेतावनी और दूसरी ओर संगठन के अनुशासन की मर्यादा। क्या भाजपा की अनुशासन समिति वही मानक शिवराज पर भी लागू करेगी, जो किसी सामान्य विधायक के लिए करती है? या फिर पार्टी यह सब ‘बड़ी हस्तियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ मानकर चुप रह जाएगी? अगर सरकार इस मुद्दे को अनदेखा करती है तो यह भाजपा के भीतर ‘दो सत्ता केंद्र’ का संकेत होगा। एक मुख्यधारा सरकार, दूसरा शिवराज प्रभाव का साया। और यही साया आने वाले समय में मध्यप्रदेश भाजपा की सबसे बड़ी चुनौती बन सकता है। अब गेंद सरकार के पाले में है क्या भाजपा अपने ही वरिष्ठ नेता की इस ‘आदिवासी हुंकार’ पर अनुशासन का डंडा चलाएगी या फिर ‘आदिवासी’ का नाम लेकर चल रही यह राजनीतिक गूंज धीरे-धीरे दिल्ली तक पहुंचने दी जाएगी?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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