
- छोटी-छोटी बात पर मंत्री तक उपेक्षा का लगा रहे आरोप
गौरव चौहान/बिच्छू डॉट कॉम। कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए अधिकांश नेता अभी तक भगवा रंग में नहीं रंग पाए हैं। इसका असर यदा-कदा देखने को मिलता है जब नेता अपने आप को उपेक्षित बताते हैं। भाजपा में शामिल होने के बाद महाराज यानी ज्योतिरादित्य सिंधिया तो पूरी तरह भाजपाई हो गए हैं, लेकिन उनके समर्थक अभी भी अपने को उपेक्षित बता रहे हैं। खासकर वे नेता जो मंत्री बन गए हैं या पदाधिकारी बने हैं। जबकि भाजपा सिंधिया और उनके समर्थकों को पूरा महत्व दे रही है। वर्ष 2020 में तत्कालीन शिवराज सिंह चौहान मंत्रिपरिषद यानी कैबिनेट में आधी संख्या ज्योतिरादित्य समर्थक नेताओं की थी। उन्हें प्राथमिकता देने के फेर में जातिगत, क्षेत्रीय और सांगठनिक समीकरणों को दरकिनार कर दिया गया था। उपचुनाव में भी सभी को टिकट दिया गया था। वर्ष 2023 के विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा सरकार बनी तो भी डा. मोहन यादव की कैबिनेट में सिंधिया खेमे के कुछ मंत्री शामिल किए गए।
मप्र की सरकार में भले ही कांग्रेस से आए नेताओं को मंत्री पद मिल गया हो, लेकिन वे भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं की उपेक्षा के चलते अब वे पार्टी से दूरी बनाने लगे हैं। केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को अपने समर्थकों सहित भाजपा में शामिल हुए साढ़े पांच साल हो चुके हैं, लेकिन प्रदेश में अंदरूनी तौर पर सरकार में उनका रवैया गठबंधन के सहयोगी जैसा दिखाई पड़ रहा है। सत्ता और संगठन का दावा रहा है कि कहीं कोई समस्या नहीं है, लेकिन कैबिनेट बैठक से लेकर प्रशासनिक जिम्मेदारियों में ज्योतिरादित्य सिंधिया के करीबी मंत्रियों के हाव-भाव अन्य मंत्रियों से अलग दिखाई देते हैं। गोविंद सिंह राजपूत विवादों में घिरे ही रहते हैं। बर्खास्त परिवहन आरक्षक सौरभ शर्मा के सैकड़ों करोड़ रुपये के घोटाले से लेकर बेनामी संपत्ति के उनके कई मामले सामने आए। बचाव की मुद्रा में भाजपा को इन मुद्दों पर कई बार नीचा देखना पड़ा। दूसरी तरफ ऊर्जा मंत्री प्रद्युम्न सिंह तोमर हैं, जो आए दिन सरकार को संकट में डालते रहते हैं।
कोई विवादों से तो कोई बयानों से बढ़ा रहा परेशानी
मप्र सरकार में शामिल सिंधिया समर्थक मंत्रियों में से कोई अपने विवादों के कारण तो कोई अपने बयानों से भाजपा की परेशानी बढ़ा रहा है। मोहन सरकार में फिलहाल सिंधिया के करीबी तीन मंत्रियों में गोविन्द सिंह राजपूत और प्रद्युम्न सिंह तोमर सरकार की मुसीबत बढ़ा रहे हैं जबकि तुलसी सिलावट समरस दिखाई दे रहे हैं। 9 सितंबर को ही कैबिनेट की बैठक में प्रद्युम्न सिंह ने आरोप लगाया कि ग्वालियर के साथ न्याय नहीं हो पा रहा है। कलेक्टर- कमिश्नर उनकी सुन नहीं रहे हैं। प्रद्युम्न सिंह ग्वालियर से विधायक हैं। ऐसे में उनकी पीड़ा लोकप्रियता के लिहाज से चर्चा में भले आ जाए, लेकिन राजनीतिक और प्रशासनिक कसौटी पर बड़े सवाल खड़े करती है। ग्वालियर के साथ न्याय नहीं हो पा रहा है, यह कहना प्रद्युम्न सिंह की राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव नहीं दर्शाता? उनके पास ऊर्जा विभाग की पूरी जिम्मेदारी है, लेकिन ऐसे बयान उनकी कार्यक्षमता और दूरदर्शिता पर सवाल खड़े करते हैं। मंत्रिपरिषद में सभी मंत्रियों को समान अधिकार दिए गए हैं। काउंसिल आफ मिनिस्टर्स को समझा जाए तो मुख्यमंत्री भी कोई विशेषाधिकार नहीं रखते हैं। बस वे काउंसिल आफ मिनिस्टर के मुखिया हैं। ऐसे में प्रद्युम्न सिंह जो दुखड़ा रो रहे हैं, वह उनकी मौजूदगी के संदर्भमें विचारणीय है। यदि मंत्री रहते हुए भी जनहित का काम नहीं करवा पा रहे हैं, तो उनकी प्रशासनिक क्षमता पर प्रश्न चिह्न खड़ा होता है। बाबूलाल गौर तो मंत्री होते हुए भी मुख्य सचिव को अपनी बैठक में बुला लिया करते थे, फिर प्रद्युम्न सिंह के सामने क्या संकट है।
अभी भी दिख रही दरार
ज्योतिरादित्य समर्थकों को समरस बनाने के चक्कर में भाजपा संगठन में खटास, अब इस कदर पुरानी बात हो चुकी है कि इसे व्यवहार में लाना समर्पित कार्यकर्ताओं के लिए मजबूरी बन गई है। यदि सरकार में मंत्री शिकायती लहजा नहीं छोड़ेंगे, तो यह आगे मुख्यमंत्री के लिए खासी चुनौती बन सकता है। दरअसल, अभी भी भाजपा और ज्योतिरादित्य सिंधिया समर्थकों के बीच दरार है। कैबिनेट बैठक में प्रद्युम्न सिंह का यह कहना खेमेबाजों की राजनीति को स्पष्ट करता है। बात बैठक तक ही सीमित नहीं है, जब ज्योतिरादित्य सिंधिया भोपाल या मध्य प्रदेश के दौरे पर आते हैं, हैं, तो उनके तीनों समर्थक मंत्री उनके काफिले में शामिल रहते ही हैं। ऐसा लगता है कि ज्योतिरादित्य कैबिनेट अलग चल रही है। इसके कई राजनीतिक मायने भी निकाले जा सकते हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया और भाजपा संगठन के बीच भी बहुत अच्छी केमेस्ट्री नहीं है। विजयपुर विधानसभा उपचुनाव में यह दरार स्पष्ट दिखाई दे चुकी है। भाजपा ने कांग्रेस के तत्कालीन विधायक रामनिवास रावत को तोडकऱ लाया और उपचुनाव लड़ाया तो भी उन्हें चुनाव नहीं जिता पाई। इसकी वजह यह बताई गई कि ज्योतिरादित्य सिंधिया चुनाव प्रचार के लिए नहीं आए। उधर, ज्योतिरादित्य ने इसका जवाब यह कह कर दिया कि उन्हें तो बुलाया ही नहीं गया। खैर, ऐसे एक नहीं अनेक किस्से हैं, जिसमें यह दिखाई पड़ता है कि पांच साल पहले कमल नाथ सरकार को गिराने के लिए भाजपा ने जो प्रयोग किया था, वह विचारधारा के स्तर पर अब भी सफल नहीं हो पाया है। केवल सिलावट को छोड़ दिया जाए, तो बाकी सभी ज्योतिरादित्य समर्थक मंत्री भगवा रंग में रंग नहीं पाए हैं। कैबिनेट में भी तोमर की पीड़ा को देखकर यही लगता है। सरकार की भागीदारी में खींची हुई लकीर का बार-बार उभरना, संगठन में भी ऐसी ही दरार के चिह्न दिखाता है। प्रदेश अध्यक्ष के मनोनयन से पहले जिला अध्यक्षों के नाम तय करने में भी ज्योतिरादित्य सिंधिया समर्थनों ने अपना खासा दबाव बनाया था, जिसके चलते भाजपा के न केवल पुराने निष्ठावान कार्यकर्ताओं को मायूसी हाथ लगी थी, बल्कि कई दिग्गजों को भी अपने क्षेत्र में समझौता करना पड़ा था।