मप्र में 10 लाख से अधिक कुपोषित

 कुपोषित
  • हाईकोर्ट ने कलेक्टरों से मांगी स्टेटस रिपोर्ट

भोपाल/बिच्छू डॉट कॉम। मप्र में कुपोषण बड़ी समस्या बन गया है। सरकार की कोशिशों के बावजुद कुपोषण रूक नहीं रहा है। आलम यह है कि प्रदेश में 66 लाख बच्चों में से 10 लाख से अधिक कुपोषित हैं, जिनमें 1.36 लाख गंभीर रूप से पीडि़त हैं। कुपोषण की भयावह स्थिति पर चिंता जताते हुए हाईकोर्ट की चीफ जस्टिस संजीव सचदेवा व जस्टिस विनय सराफ की युगलपीठ ने राज्य के सभी जिलों के कलेक्टरों को कुपोषण की वास्तविक स्थिति पर चार सप्ताह में स्टेटस रिपोर्ट पेश करने के निर्देश दिए हैं। साथ ही राज्य शासन व मुख्य सचिव को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है।
दरअसल, प्रदेश में कुपोषण की भयावह स्थिति को लेकर  एक जनहित याचिका जबलपुर निवासी दिपांकर सिंह द्वारा दायर की गई, जिनकी ओर से अधिवक्ता अमित सिंह सेंगर, अतुल जैन, अनूप सिंह सेंगर व कोविदा त्रिपाठी ने पक्ष रखा। याचिका में कहा गया कि शासन-प्रशासन केवल कागजी आंकड़ों के आधार पर वास्तविक तस्वीर को छिपा रहा है, जबकि सच्चाई बेहद गंभीर है। प्रदेश में 66 लाख बच्चों में से 10 लाख से अधिक कुपोषित हैं, जिनमें 1.36 लाख गंभीर रूप से पीडि़त हैं। वहीं महिलाओं में एनीमिया की दर 57 प्रतिशत है। जबलपुर में 1.80 करोड़ रुपये का किराया आंगनबाड़ी केंद्रों को दिया गया, जबकि बच्चों की उपस्थिति बहुत कम है। रीवा में पोषण आहार को पैरों से रौंदकर बनाए जाने का वीडियो और विदिशा में लंबाई बढ़ाकर झूठी रिपोर्ट भेजने जैसे मामले भी अदालत में पेश किए गए। कोर्ट ने इन हालातों को गंभीर मानते हुए जमीनी सच्चाई को दर्शाने वाली रिपोर्ट को अनिवार्य बताया है। पोषण ट्रेकर 2.0 और स्वास्थ्य सर्वे के अनुसार प्रदेश कुपोषण में देश में दूसरे स्थान पर है। याचिकाकर्ता ने बताया कि पोषण आहार में प्रोटीन व विटामिन की भारी कमी है, जिससे बच्चे ठिगने और दुर्बल हो रहे हैं। 2025 में अंडरवेट बच्चों की संख्या में तीन प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। गर्भवती महिलाओं, किशोरियों व शिशुओं को दिए जाने वाले पोषण आहार में वितरण व परिवहन स्तर पर भारी अनियमितता की शिकायतें मिली हैं। कैग रिपोर्ट में भी पोषण आहार में 858 करोड़ रुपए के भ्रष्टाचार की बात सामने आई है।
एमपी या मप्र लिखने से राज्य का नाम नहीं बदलता
मध्यप्रदेश हाई कोर्ट की मुख्य न्यायाधीश संजीव सचदेवा और न्यायमूर्ति विनय सराफ की युगलपीठ ने स्पष्ट किया कि मध्यप्रदेश को मप्र या एमपी लिखने से उसका नाम नहीं बदलता, बल्कि इससे पहचान आसान होती है। कोर्ट ने इस संबंध में दायर जनहित याचिका को निरस्त कर दिया। भोपाल निवासी वीके नस्वा ने याचिका दायर कर कहा था कि राज्य का संवैधानिक नाम मध्यप्रदेश है, फिर भी 90 प्रतिशत लोग बोलचाल और 80 प्रतिशत लोग लिखित में एमपी या मप्र कहते हैं। कोर्ट ने कहा कि संक्षिप्त रूप लेखन को तेज और सुविधाजनक बनाते हैं। जैसे अमेरिका को यूएसए और यूनाइटेड किंगडम को यूके कहा जाता है, वैसे ही एमपी कहना भी गलत नहीं। कोर्ट ने टिप्पणी की कि याचिकाकर्ता यह स्पष्ट नहीं कर सके कि इसमें क्या जनहित निहित है, इसलिए याचिका खारिज की जाती है।

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