पैरामेडिकल छात्रवृत्ति घोटाले में अफसर बेदाग कैसे?

पैरामेडिकल छात्रवृत्ति
  • शासन व सरकार की मंशा पर खड़े हो रहे गंभीर सवाल

भोपाल/विनोद उपाध्याय/बिच्छू डॉट कॉम। मप्र में करीब 8 साल पहले पैरामेडिकल कालेजों में हुए छात्रवृत्ति घोटाले में हाईकोर्ट की सख्ती और फटकार के बाद सरकार ने कॉलेज और उनके संचालकों के खिलाफ धड़ाधड़ कार्रवाई तो शुरू कर दी है, लेकिन अफसरों पर आंच तक भी नहीं आई है। जबकि जानकारों का कहना है कि यह घोटाला अफसरों की मिलीभगत के बिना संभव नहीं है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि अफसरों को आरोपी ही नहीं बनाया गया है। गौरतलब है कि प्रदेश में वर्ष 2010 से 2015 के बीच निजी पैरामेडिकल कालेजों द्वारा किए गए 24 करोड़ रुपये के छात्रवृत्ति घोटाले ने पूरे सिस्टम पर बड़े प्रश्न खड़े कर दिए हैं। हाई कोर्ट में याचिका के बाद सरकार कठघरे में है। कालेजों से छात्रवृत्ति की वसूली भी तेज हो गई, पर इसके पहले सरकारी तंत्र की कार्यप्रणाली मूकदर्शक वाली रही। जनजातीय कार्य विभाग का तर्क है कि मामला लोकायुक्त संगठन और ईओडब्ल्यू की जांच में है। विभागीय अधिकारियों की कहीं भी संलिप्तता होगी तो सामने आ जाएगी। बहुत सारी प्रक्रियाएं होती हैं, इस कारण वसूली में देरी हुई। हम जल्दी वसूली कर लेंगे। इसकी दैनिक समीक्षा कर रहे हैं। पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप घोटाले में प्रदेश भर के कॉलेजों के विरुद्ध 100 से ज्यादा मुकदमे लोकायुक्त में दर्ज हैं। यहां बता दें कि प्रदेश के 100 से ज्यादा पैरामेडिकल कालेजों द्वारा 24 करोड़ रुपये के छात्रवृत्ति घोटाला किया गया है। हाई कोर्ट में सरकार ने बताया है कि  जबलपुर के कई और इंदौर जिले के 7 पैरामेडिकल कॉलेजों के बैंक खातों को फ्रीज किया गया है। लेकिन सवाल उठ रहा है कि इस घोटाले में एक भी अफसर को आरोपी नहीं बनाया है। याचिकाकर्ता विशाल बघेल का कहना है कि वर्ष 2015 में एफआईआर होने के बाद लोकायुक्त में फाइल दबी रही। अधिकारियों को भी आरोपी नहीं बनाया गया है। सात वर्ष में भी जांच पूरी नहीं हुई जिससे  गड़बड़ी करने वाले बचे हुए हैं।
अफसरों को दे दी क्लीन चिट
जानकारी के अनुसार लोकायुक्त संगठन ने चौतरफा दबाव के चलते एफआईआर तो दर्ज कर ली, पर जांच कछुआ चाल से की जा रही है। जांच एजेंसी ने इस मामले 100 एफआईआर दर्ज की है। इनमें ज्यादातर कालेज संचालक हैं। इसमें पहले जनजातीय कार्य विभाग के अधिकारियों को एफआईआर में आरोपित बनाया गया था, किंतु बाद में उन्हें क्लीनचिट दे दी गई है। लोकायुक्त संगठन की ओर से विशेष न्यायालय में पेश किए चालानों में अधिकारियों का नाम नहीं है, जबकि छात्रवृत्ति लेने वालों का सत्यापन और स्वीकृति व भुगतान, इसी विभाग के जिला स्तर के अफसरों ने किया था। ऐसे में उनकी मिलीभगत की भी आशंका है। पूर्व में जनहित याचिका के जवाब में सरकार ने 2017 में हाई कोर्ट को बताया था कि लोकायुक्त संगठन की तरफ से मामला दर्ज कर जांच की जा रही है।
 2014 में पहली बार सामने आया घोटाला…
केन्द्र की तरफ से एससी, एसटी और ओबीसी विद्यार्थियों के लिए मिली पोस्ट मैट्रिक छात्रवृत्ति में हुए घोटाले का मामला पहली बार 2014 में सामने आया था। उस समय इंदौर कलेक्टर के पास यह शिकायत पहुंची थी कि कुछ पैरामेडिकल कॉलेजों ने सिर्फ छात्रवृत्ति लेने के लिए विद्यार्थियों का प्रवेश दिखाया है। जिला पंचायत के तत्कालीन सीईओ आशीष सिंह ने सभी कॉलेजों की जांच की तो फर्जीवाड़ा सामने आया। जांच में पता चला कि प्रवेश फार्म एक ही हैंडराइटिंग में भरे हैं। छात्रवृत्ति के अकाउंट पेयी चेक विद्यार्थियों को देने का नियम था, पर फर्जीवाड़ा करने के लिए कालेजों ने बियरर चेक बनाए। इसके बाद उसी वर्ष कलेक्टर ने फर्जी तरीके से ली गई छात्रवृत्ति वसूलने को कहा था। तब से सात वर्ष हो चुके हैं, पर अब तक राशि की वसूली नहीं हो पाई है।
 चार करोड़ की ही वसूली
इस पूरे मामले में जांच के बाद प्रदेश भर में 100 से ज्यादा कॉलेज संचालकों पर एफआईआर दर्ज हुई थी। साथ ही पूरे प्रदेश में निजी पैरामेडिकल कॉलेजों से करोड़ों रुपए की वसूली के आदेश जारी हुए थे, लेकिन अधिकारियों और कॉलेजों की मिलीभगत से करोड़ों रुपयों की वसूली आज तक नहीं हो सकी है।

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